महात्मा गांधी ने भारत का स्वतन्त्रता संग्राम केवल अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के लिए ही नहीं छेड़ा था, बल्कि प्रत्येक भारतीय में आत्मसम्मान के लिए अपनी आवाज बुलन्द करने की ताकत भरने का महाभियान भी शुरू किया था। स्वतन्त्र भारत में लोकतन्त्र की स्थापना का यही मूल कारण भी बना। यही कारण रहा कि जिन लोगों ने 15 अगस्त 1947 को भारतीयों की पं. नेहरू के नेतृत्व में बनी सरकार को सत्ता का हस्तांतरण कहा, बाद में उन्हें अपने विचार बदलने पड़े और स्वीकार करना पड़ा कि यह गुलामी की जंजीरों में जकड़े भारत के लोगों की अपनी पहली सरकार थी। जाहिर तौर पर कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों पर यकीन करने वाले कम्युनिस्टों का ही कहना था कि 15 अगस्त को सत्ता का हस्तांतरण हुआ था मगर दुनियाभर में सशस्त्र संघर्ष के जरिये सत्ता परिवर्तन के हिमायती उस समय भारत की उस हकीकत को भूल गये थे जिसका नाम महात्मा गांधी था। महात्मा गांधी की कांग्रेस पार्टी ने आजादी की लड़ाई को केवल सत्ता के हस्तांतरण से कभी नहीं जोड़ा बल्कि इसे आम जनता के हाथों में सत्ता की ताकत देने से इस प्रकार जोड़ा कि अंग्रेजी शासन के दौरान गूंगे बनाये गये भूखे और मुफलिस लोगों में हुकूमत को चुनौती देने की ताकत जाग सके और उनके लिए आत्मसम्मान और निजी गौरव ऊंचे स्थान पर हो। इसी वजह से 1936 में ही भारत ने संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली स्थापित करने का फैसला कर लिया जिस पर ब्रिटिश संसद में बैठे विद्वानों में भी भारी मतिभ्रम बना। उनमें से एक ने कहा कि भारत ने अंधेरे में छलांग लगाने का निर्णय किया है मगर दूसरे अंग्रेज विद्वान ने इसे पूरे एशिया महाद्वीप के लिए आत्मनिर्भरता और स्वतन्त्रता की तरफ बढ़ने वाला दिशा सूचक फैसला कहा।
जाहिर है एेसा मत प्रकट करने वाले ब्रिटेन की लेबर पार्टी के ही सांसद थे। यह महात्मा गांधी की दूरदर्शिता ही थी कि उन्होंने अपनी पार्टी कांग्रेस से यह फैसला करने के लिए कहा था। एेसा नहीं है कि उस दौरान भारत के क्रान्तिकारी देश की आजादी के लिए लड़ाई नहीं लड़ रहे थे। क्रान्तिवीरों का रास्ता सशस्त्र संघर्ष का था। वे अपने स्तर पर अंग्रेज सरकार में खौफ पैदा करके उन्हें भारत से जाने के लिए दबाव बना रहे थे मगर महात्मा गांधी का रास्ता थोड़ा अलग था। वह आम जनता के भीतर अंग्रेजों के शासन से लड़ने के लिए उनके उन अधिकारों का आन्दोलन भी समानान्तर रूप से चला रहे थे जिसका सीधा सम्बन्ध व्यक्तिगत अधिकारों की स्वतन्त्रता से था और जिसकी प्रतिष्ठा स्वतन्त्र भारत में पक्के तौर पर होनी थी। चाहे नमक सत्याग्रह हो या सविनय अवज्ञा आन्दोलन, सभी के जरिये महात्मा गांधी भारत के आम आदमी के भीतर आत्मसम्मान और इसके गौरव को भर रहे थे और अंग्रेजों को सन्देश दे रहे थे कि उनका शासन आम भारतीय की प्रतिष्ठा को कुचलने वाला और उसके निजी सम्मान को रौंदने वाला है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार महात्मा गांधी ने भारतीयों के रक्त में अपने स्वतन्त्रता आन्दोलन के जरिये इस प्रकार भरा कि 1947 से पूर्व बच्चा-बच्चा अंग्रेजी शासन के खिलाफ हो गया और महात्मा व उनके चुने हुए शागिर्दों ने खुद कलम पकड़ कर भारत की पत्रकारिता का एेसा खूबसूरत अध्याय लिखा जिसकी गूंज ब्रिटिश सम्राट की वफादारी की कसम खाने वाली भारतीय सेनाओं पर भी पड़ी और द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़ने भारतीय सैनिक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज में शामिल होने लगे। अतः राजस्थान की मुख्यमन्त्री ने अगर सत्ता के गरूर में किसी गलतफहमी में एेसा कानून बनाकर लागू करना चाहा था जिससे पत्रकारों तक को भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करने से पहले सरकार की इजाजत लेनी पड़ती तो यह स्वतन्त्र भारत में एेसी हुकूमत की पुनः शुरूआत होती जिसके सिरे हमें लार्ड कर्जन और वारेन हेस्टिंग्ज से जोड़ने पड़ते क्योंकि मुगलकाल तक के दौरान इसी भारत की धरती पर एेसा सन्त तुलसीदास हुआ था जिसने बादशाह अकबर तक के बुलावे को यह कहकर हवा में उड़ा दिया था कि, ‘‘कहा मोको सीकरी सो काम’’ मगर इससे भी ऊपर यह गांधी के देश में उनके द्वारा की गई सारी मेहनत पर पानी फेरने वाला कानून होता और एेसे लोगों के भ्रष्टाचार को छिपाने वाला होता जिनके ऊपर भारत के लोकतन्त्र के लोकोन्मुख होने की जिम्मेदारी प्रारम्भिक तौर पर है।
मैजिस्ट्रेट हो या जज अथवा मन्त्री या पूर्व मन्त्री या सरकारी अधिकारी, सभी हमारे लोकतन्त्र में नागरिकों के सेवक हैं, उनके मालिक नहीं। अंग्रेजों के भारत और स्वतन्त्र भारत में यही तो मूल अन्तर है। यदि एेसा न होता तो जलियांवाला कांड कैसे हो सकता था, जिसके लिए ब्रिटिश सरकार ने आठ दशक गुजरने के बाद माफी मांगी। पाठकों को याद होगा कि मैंने पहले ही लिखा था कि राजस्थान सरकार के एेसे किसी भी फरमान की जगह सिर्फ रद्दी की टोकरी हो सकती है मगर इसमें एक मूल सवाल और है। भारत के विभिन्न राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति केवल शोभा के लिए नहीं की गई है। संविधान में राज्यपालों के पास कुछ अधिकार भी हैं और इनमें सबसे बड़ा अधिकार संविधान का शासन होते देखना है। अगर केरल के राज्यपाल इस राज्य में राजनीतिक हिंसा के भड़कने पर मुख्यमन्त्री से जवाब तलबी कर सकते हैं तो राजस्थान के राज्यपाल का यह कर्तव्य जरूर बनता था कि वह राज्य की मुख्यमन्त्री को उनके एेसे जनविरोधी व संविधान विरोधी फैसला लेने पर अपनी शक्ति का उपयोग करते मगर वह तो दुग्गी पर दुग्गी मारते रहे। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अधिकार वह संवैधानिक अधिकार है जिसे मुल्तवी करने वाली कोई भी सरकार अपने जनादेश को नकारने का काम करती है क्योंकि उसकी नियुक्ति ही इसी अभिव्यक्ति के अधिकार की बदौलत एक वोट के अधिकार से होती है। इसलिए राजस्थान विधानसभा में एेसे अध्यादेश को विधेयक के रूप में पेश करने पर जो हंगामा हुआ है वह पूरी तरह जायज है और इस राज्य की सड़कों पर जो तूफान उठा है वह लोकतन्त्र की ताकत है। सभी राजनीतिक दलों के मुख्यमन्त्रियों को यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि गांधी ने जिस लाठी को हमेशा पकड़े रखा वह कुछ और नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ही है क्योंकि जब कोई नेता अपनी अकड़ में हुकूमत को मगरूर होकर चलाता है तो यही लाठी बिना आवाज इस तरह चलती है कि बड़े-बड़े सूरमा ‘बे-आवाज’ हो जाते हैं। स्वतन्त्र भारत का यही इतिहास है। हर बार इसके लोग गांधी की ‘लाठी’ की लाज रखते हैं।