‘‘अब तो मजहब कोई, ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इन्सान को, इन्सान बनाया जाए
आग बहती है यहां गंगा में, झेलम में भी
कोई बतलाए, कहा जाकर नहाया जाए
मेरा मकसद है के महफिल रहे रोशन यूं ही
खून चाहे मेरा, दीपों में जलाया जाए।’’
यह पंक्तियां गोपाल दास नीरज की हैं। वे शरीर त्याग गए लेकिन अपने गीत हमेशा के लिए हमारे लिए छोड़ गए। आज भी पीढ़ी शायद उन्हें फिल्मी गीतकार के तौर पर जानती है लेकिन नीरज हिन्दी साहित्य का बहुत बड़ा व्यक्तित्व रहे जिसे जनता ने सराहा आैर सम्मान दिया। उनके भौतिक संसार को छोड़ जाने से हिन्दी साहित्य को एक आघात लगा है। नीरज साहित्य की लम्बी यात्रा के पथिक रहे। गीत, कविता, दोहे और शे’र, उन्होंने अपनी कलम से हर विद्या को अपनाया। वह जीवन के दर्शन के रचनाकार थे। उनकी रचनात्मकता में जीवन मूल्य धड़कते रहे जहां उनकी रचनाओं में गम्भीरता झलकती थी, वहीं शोखियां भी थीं। उन्होंने जीवन के हर यथार्थ को मांगा। गंगा किनारे उनका घर हुआ करता था और घर में बेहद गरीबी थी। जो लोग गंगा नदी में 5 पैसे और 10 पैसे फैंकते थे तो वह भी अन्य बच्चों के साथ गोता लगाकर उन्हें निकालकर इकट्ठा करते थे और इसी जमा पूंजी से घर का चूल्हा जलता था। कुछ बड़े हुए तो कविता का शौक लग गया। फिर क्या था मंच पर गए तो छा गए। मुम्बई फिल्म उद्योग में गए तो वहां छा गए। मंच के कवि के तौर पर जितनी लोकप्रियता उन्हें हासिल हुई, उतनी शायद किसी को नहीं हुई।
कोई दौर था जब रात-रात भर कवि सम्मेलन आैर मुशायरे आयोजित किए जाते थे। लोग घरों से कम्बल और तकिये लेकर पंडालों में बैठते थे। अलाव जलाए जाते थे। कवि सम्मेलनों में एक ऐसा कवि जरूर आमंत्रित किया जाता था ताकि लोग उसे सुनने के लिए अन्त तक बैठे रहते। उस दौर में नीरज जी को अन्त में बुलाते थे। जब वह कविता पाठ शुरू करते तो फिर लोग उन्हें हटने का मौका ही नहीं देते थे। भारत में कवि सम्मेलन एक परम्परा रही है। महानगरों में तो यह परम्परा अब समाप्त हो चुकी है। छोटे शहरों में कहीं-कहीं यह परम्परा अब भी जिन्दा है। लोग आज केवल दूरदर्शन के चैनलों पर ही कवियों को सुन लेते हैं। बहुत से मंच के कवियों ने फिल्मों के गीत भी लिखे लेकिन साहित्य ने भी कभी उन्हें हिकारत की नजर से नहीं देखा, उनमें सबसे शीर्ष नाम नीरज का ही रहा। उन्होंने शब्दों के माध्यम से कभी कोई हल्की बात कही ही नहीं बल्कि काव्य परम्परा विभिन्न रूपों को उन्होंने जिया। मुझे आज गर्व हो रहा है कि छात्र जीवन में मैंने लुधियाना में आयोजित कवि सम्मेलन में उनको सुना था। उनकी लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली हुई थी।
स्वप्न भरे फूल से, गीत शमे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से
आैर हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।
उनकी इस नज्म की वजह से फिल्म बन गई-‘नई उम्र की नई फसल’। उसमें उनकी इसी नज्म का इस्तेमाल किया गया। फिल्म नहीं चली लेकिन गीत हिट हो गए। फिल्म उद्योग में एक समय था जब देवानन्द, राजकपूर और मनोज कुमार जैसे लोग गीतकारों आैर साहित्यकारों काे बड़ा सम्मान देते थे। कई फिल्मी सितारे कवि सम्मेलनों में लगातार कवियों को सुनने जाते थे। नीरज जी को मुम्बई फिल्मी उद्योग में लाने का श्रेय देवानन्द साहब को जाता है। देवानन्द, सचिन देव बर्मन और नीरज ने मिलकर एक के बाद एक हिट गीत दिए। राजकपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का मशहूर गीत ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’ भी उन्होंने ही लिखा था। उन्होंने जीवन को समग्र आयाम में देखा। रोशन, सचिन देव बर्मन और राजकपूर के निधन के बाद वह फिल्मी जीवन से उदास हो गए और सपनों की नगरी छोड़कर वापस लौट आए।
उन्होंने दुःख, सुख, दर्द, पहाड़ छूती लोकप्रियता आैर वैभव को जिया। उनका कहना था कि जीवन कटना था, कट गया, अच्छा कटा, बुरा कटा या तुम जानो मैं तो समझता हूं कपड़ा पुराना एक दिन फटना था, फट गया, जीवन कटना था, कट गया। उनकी भाषा प्रेम की भाषा रही। अध्यात्म का उन पर काफी असर रहा। उन्होंने कहा था ‘मेरा धर्म में विश्वास नहीं है, धार्मिकता में है, ईश्वर के नाम पर 4 हजार धर्म बने। इन धर्मों ने क्या किया, खून बहाया। हिन्दुस्तान ने कहा, पहला अवतार मत्स्यावतार, अवतार नहीं था वह, धरती पर जीवन का अवतार था। फिर कृष्ण आए उन्होंने जीवन को उत्सव बना दिया। नीरज ने भी जीवन को उत्सव की तरह माना। नीरज की पानी के यह शब्द याद आते हैं ‘‘आज की रात तुझे आखिरी खत और लिख दूं, कौन जाने यह दीया सुबह तक जले न जले। बम्ब, बारूद के इस दौर में मालूम नहीं, ऐसी रंगीन हवा फिर कभी चले न चले। जो रंगीन हवाएं शब्दों के माध्यम से नीरज ने चलाईं, शायद वह कभी नहीं चलेंगी लेकिन उनको भुलाने में सदियां बीत जाएंगी। गीत गुमसुम है, गजल चुप है, रुवाई है दुःखी लेकिन अब नीरज नहीं आएंगे। मूल्यों की शायरी करने वाले महान व्यक्तित्व को पंजाब केसरी परिवार भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।