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लोकतंत्र की विजय

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इस देश को स्वतंत्र कराने वालों ने हमें जो लोकतंत्र का ढांचा दिया है उसका कोई न कोई हिस्सा ऐसे संकट के समय अपना सिर ऊंचा करके अपने हाथों की ताकत से पूरी व्यवस्था के तंत्र को थाम लेता है जब उसके ढहाने की तजवीजों की तहरीर लिखने की कोशिश की जाती है। गुजरात राज्यसभा के चुनावों में विपक्षी पार्टी कांग्रेस के प्रत्याशी अहमद पटेल के चुनाव को पूरी तरह न्यायिक कसौटी पर कसकर चुनाव प्रणाली में लागू नियमों की पेशबंदी करके भारत के चुनाव आयोग ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि उसकी स्वतंत्र सत्ता केवल और केवल संविधान के प्रति ही उत्तरदायी होगी। वास्तव में गुजरात में किसी अहमद पटेल की जीत नहीं हुई है, बल्कि लोकतंत्र की जीत हुई है। जीत उस व्यवस्था की हुई है जिसे हमने आजादी के बाद अपनाकर कहा कि चुनाव आयोग राजनीतिक सत्ता से निरपेक्ष रहते हुए अपने कत्र्तव्य का पालन करेगा और प्रत्येक राजनीतिक दल को समान रूप से न्याय देगा जो कि उसका मुख्य अधिकार है।

भारत के लोकतंत्र ने अपनी अजीम ताकत का पहली बार इजहार किया हो ऐसा नहीं है। हमारे चौखम्भा राज के प्रमुख स्तम्भ न्यायपालिका ने भी 12 जून, 1975 को पूरी दुनिया को चौंका दिया था जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश स्व. जगमोहन लाल सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का रायबरेली क्षेत्र से लोकसभा चुनाव अवैध घोषित किया था। लोकतंत्र की यही खूबी भारत की ताकत है जिसे इस देश के लोगों ने अपना खून-पसीना देकर मजबूत किया है। हमारे पुरखों ने ऐसी संवैधानिक संस्थाएं खड़ी कीं जो हर संकटकालीन परिस्थिति में लोकतंत्र पर प्रहार करने वाली ताकतों को करारा जवाब दे सकें और ऐलान कर सकें कि भारत का निजाम हुकूमत के गरूर से नहीं बल्कि संविधान से ही चलेगा। इस मुल्क के लोग जिस भी पार्टी को सत्ता में बैठाएंगे उसका ईमान केवल संविधान और कानून का राज ही रहेगा जिसके लिए चौतरफा पहरेदारी के तौर पर विभिन्न संस्थाएं स्वतंत्र रहकर काम करेंगी।

कितने दूरदर्शी थे इस मुल्क को आजादी दिलाने वाले लोग कि उन्होंने ऐसे पुख्ता इंतजाम पहले ही कर दिये थे कि लोकतंत्र में अगर किसी की सत्ता रहे तो वह इसके आम लोगों की रहे और उस संविधान की रहे जिसे 26 जनवरी, 1950 को उन्होंने खुद अपने ऊपर लागू किया था। हममें और दुनिया के दूसरे लोकतंत्रों में यही फर्क है कि हमने सत्ता को बेलगाम होने की कोशिशों पर अंकुश बनाये रखने की ऐसी पक्की व्यवस्था की जिसमें सरकार के फैसलों तक की तस्दीक न्यायपालिका बेखौफ होकर कर सके। जिन चुनावों के जरिये सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त हो वह बिना किसी राजनीतिक दबाव के अपना कार्य निर्भय होकर कर सके और इस प्रकार कर सके कि उसके सामने केवल कानून की किताब ही रहे।

इसी के लिए हमने चुनाव आयोग का गठन किया और इसे संवैधानिक दर्जा दिया इसलिए चुनाव आयोग का गुजरात के मामले में दिया गया फैसला किसी राजनीतिक दल के पक्ष या विपक्ष में दिया गया फैसला नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की बुनियाद को हिलाने की कोशिशों के खिलाफ चुनाव आयोग की स्वतंत्र सत्ता का ऐलान है। इसी के जेरे साये हमने सभी चुनावों की जिम्मेदारी तय की जिससे प्रत्येक राजनीतिक दल बेखौफ होकर किसी भी ज्यादती के खिलाफ उसके दरवाजे पर दस्तक दे सके, क्योंकि सत्ता में आने पर कोई भी राजनीतिक दल आपे से बाहर हो सकता है। अत: राज्यसभा चुनावों के लिए बने कानूनों के तहत चुनाव आयोग ने गुजरात राज्यसभा के चुनावों पर अपनी पैनी नजर रखी और नियमों को लागू किया।

सवाल तकनीकी किसी तौर पर नहीं है बल्कि कानूनों को लागू करने का है और कानून से ऊपर कोई नहीं है, यहां तक कि चुनाव आयोग भी नहीं मगर एक सवाल जायज तौर पर भारत का आम नागरिक पूछ रहा है कि राजनीतिक शुचिता को कायम रखने की जिम्मेदारी किसकी होती है। निश्चित तौर पर यह जिम्मेदारी चुनाव आयोग की ही है मगर इससे भी बड़ी और मूल जिम्मेदारी खुद राजनीतिक दलों पर है, चुनाव आयोग तो फैसला भर ही कर सकता है। हम जिस राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा छेड़े गए भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ को मना रहे हैं उसका लक्ष्य साधन और साध्य की शुचिता को बनाये रखते हुए आजादी प्राप्त करना था इसलिए गौर करने वाली बात यह है कि हम किस राह पर हैं।

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