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फिर आया ‘गणतंत्र दिवस’

भारत आज अपना गणतन्त्र दिवस मना रहा है। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान के लागू होने के बाद भारत के आम व सामान्य व्यक्ति ने सभी क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा कर विश्व को चौंकाया है।

भारत आज अपना  गणतन्त्र दिवस मना रहा है। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान के लागू होने के बाद भारत के आम व सामान्य व्यक्ति ने सभी क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा कर विश्व को चौंकाया है। इन वर्षों के दौरान भारत ने सामान्य नागरिकों के बूते पर ही कृषि से लेकर विज्ञान तक के क्षेत्रों में जो तरक्की की उससे अन्य क्षेत्र में यह देश अपना अनूठा स्थान बनाने में सफल रहा है और कम्प्यूटर साफ्टवेयर में दुनिया का सिरमौर है, फिर भी मानवीय विकास के कई ऐसे अंग हैं जिनमें भारत को विश्व के विकसित कहे जाने वाले देशों के समकक्ष आना है। जाहिर है यह सारा काम इन 71 वर्षों में सत्ता पर बैठने वाली विभिन्न सरकारों की सरपरस्ती में ही हुआ है। हर पार्टी की सरकार भारत के आम आदमी से ताकत लेकर ही गठित होती है अतः विकास में आम आदमी की शिरकत को ही भारत की ताकत के रूप में देखा जायेगा, जो गणतन्त्र का सही अर्थ होता है। आज के भारत में पुख्ता लोकतन्त्र की ही आवाज है, सहमति और असहमति व मत भिन्नता लोकतन्त्र में गड़गड़ाहट पैदा करते हैं जिससे यह व्यवस्था और मजबूत होती रहती है। पिछले 71 वर्षों का भारत का यही अनुभव है परन्तु इसी गड़गड़ाहट के बीच हमें आने वाली पीढि़यों का भविष्य संवारना है और उनके हाथ में एक मजबूत व आत्मनिर्भर भारत देना है जिससे वे और आगे बढ़ सकें। आज के मौके पर हमें आत्म विश्लेषण भी करना चाहिए और अपनी खामियों व खूबियों को चिन्हित करते हुए अपनी शक्ति में वृद्धि करने के उपायों की खोज करनी चाहिए।
हम आज जिस बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं वह कोई नई घटना इसलिए नहीं है क्योंकि अंग्रेजों का भारत में राज स्थापित होने से पहले भारत इसी व्यवस्था के अन्तर्गत अपना विकास कर रहा था और वाणिज्य के क्षेत्र में विश्व का सिरमौर बना हुआ था। इसका प्रमाण यह है कि 1756 के लगभग जब अंग्रेजों की ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ ने बंगाल के युवा नवाब ‘सिरोजुद्दौला’ को पलाशी के मैदान में छल-कपट से हरा कर भू-राजस्व में एक रुपये में एक आना धनराशि लेने का समझौता किया तो विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 25 प्रतिशत के लगभग था। वह दौर मुगल साम्राज्य के पतन का दौर था जिसमें दिल्ली की सल्तनत लगातार खोखली होती जा रही थी, मगर इससे पहले  अकबर महान के शासन से लेकर औरंगजेब तक के शासन के दौरान भारत के व्यापारियों का सिक्का पूरी दुनिया में चलता था और भारत के कारीगरों, शिल्पकारों व दस्तकारों द्वारा निर्मित वस्तुओं से लेकर इसके अन्य उत्पादों का निर्यात बहुलता से होता था जिनमें कपड़ा व मसाले भी शामिल थे। यह भी बेवजह नहीं था कि शहंशाह जहांगीर के जमाने में ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत में मुगल सल्तनत के इलाके में व्यापार करने के लिए ‘शाही फरमान’ जारी किया गया था और औरंगजेब का शासन आते-आते अंग्रेजों ने मुम्बई में अपनी एक कपड़ा मिल भी स्थापित कर दी थी। यह 1700 के करीब की घटना है जिसे भारत में औद्योगीकरण की शुरूआत भी कहा जा सकता है। मगर भारत के आर्थिक इतिहास की इसे अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना भी माना जायेगा क्योंकि इसके बाद से ही अंग्रेजों ने भारत की  हस्तशिल्प कला के बूते विश्वव्यापी आर्थिक ताकत को दबाने के यत्न करने शुरू कर दिये और 1857 के आते-आते इसे आर्थिक रूप से इस तरह खोखला बना दिया कि भारत के अधिसंख्य रजवाड़े कम्पनी बहादुर की सैनिक व वित्तीय मदद के मोहताज हो गये। भारत की इस स्थिति का विश्लेषण उस समय लन्दन में बैठे महान विचारक ‘कार्ल मार्क्स’ ने बहुत गहराई से किया और 1857 के ‘गदर’ को भारत का स्वतन्त्रता संग्राम बताया, हालांकि उनका नजरिया बाद में वीर सावरकर द्वारा भी इसे स्वतन्त्रता संग्राम बताये जाने से पूरी तरह अलग था और विशुद्ध आर्थिक नियमाकों से निर्देशित होता था। 1756 से 1857 तक के सौ सालों में अंग्रेजों ने भारत के लोगों को आधुनिक विज्ञान व टैक्नोलोजी से पूरी तरह महरूम रख कर अपने कारखानों में बनाये गये माल से इसके बाजारों को पाटना शुरू कर दिया और 1860 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत की सल्तनत को ब्रिटेन महारानी विक्टोरिया को भारी रकम के बदले बेच दिया। सोचने वाली बात है कि किसी गरीब मुल्क की सल्तनत को ब्रिटेन की महारानी क्यों खरीदती ? अतः प. नेहरू के इस निष्कर्ष को आज तक कोई भी इतिहासकार झुठलाने की हिम्मत नहीं जुटा सका है कि ‘भारत कभी भी एक गरीब मुल्क नहीं था’ अतः संविधान लागू होने के 71 वर्ष बाद हमें यह सोचना है कि आज विज्ञान व टैक्नोलोजी के बदलते दौर में भारत में औसत आम आदमी की आर्थिक स्थिति और मजबूत की जाए। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों व शहरी क्षेत्रों के मध्य की आर्थिक खाई पाटनी चाहिए। अगर ग्रामीण क्षेत्र में सरकारी स्कूलों में बच्चे हों या शहरी स्कूलों के बच्चे सबके पास लैपटॉप व इंटरनेट सुविधा का अनुपात बराबर होना चाहिए।
भारत को पुनः अपना वाणिज्यिक गौरव प्राप्त करना होगा। इसके साथ ही लोकतन्त्र में गण प्रतिष्ठा (नागरिक की सत्ता में सक्रिय भागीदारी) बढ़ाने के लिए हमें अपनी उस चुनाव व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन करना चाहिए जो अब कमोबेश धनतन्त्र में बदल चुकी है या चुनावों पर धन की ताकत बुरी तरह छा चुकी है। हालांकि चुनाव प्रणाली में कुछ नियमगत बदलाव जरूर किये गये मगर उनसे चुनावों में आम आदमी की सक्रियता ही संकुचित होती  गई, इसलिए हम आज जहां खड़े हैं उसके नीचे की जमीन के ‘घनत्व’ का अन्दाजा भी लगाना चाहिए ताकि जय जमीन मजबूत हो सके।

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