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दो बेटियों का सुप्रीम कोर्ट से सवाल!

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देश में मानवाधिकारों को लेकर अनेक संगठन और तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता बहुत ​ढिंढोरा पीटते हैं। कभी कश्मीर घाटी में तो कभी पूर्वोत्तर राज्यों में सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन पर शोर मचाया जाता है। घाटी में पत्थरबाजी की बढ़ती घटनाओं पर सेना प्रमुख ​​बिपिन रावत ने कुछ समय पहले एक बयान दिया था कि ‘‘लोग हम पर पत्थर और पेट्रोल बम फैंक रहे हैं, यदि मेरे लोग मुझसे पूछते हैं कि हम क्या करें, तो क्या मैं यह कहूं कि बस इंतजार करें और मर जाएं? मैं राष्ट्रीय ध्वज में लिपटे एक सुन्दर ताबूत के साथ आऊंगा और मैं आपका शरीर सम्मान के साथ आपके घर भेज दूंगा। क्या मुझे सेना प्रमुख होने के नाते उनसे ऐसा कहना चाहिए? मुझे मोर्चे पर तैनात अपने सैनिकों का मनोबल बनाए रखना है।’’

जनरल बिपिन रावत के बयान से स्पष्ट है कि जब आप किसी युद्ध जैसे हालात में हैं, तो इससे किस तरह निपटा जाए, यह सब हमें सेना पर छोड़ देना चाहिए। इन हालात में उन्हें क्या करना चाहिए, इसके लिए ज्यादा चर्चा की जरूरत नहीं। 22 मई, 2017 को जम्मू-कश्मीर में भीड़ से घिरे सुरक्षा कर्मियों और चुनाव कर्मचारियों को निकालने के लिए मेजर ​लीतुल गोगोई ने भीड़ में खड़े तमाशबीन का मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल किया था तो ह्यूमन राइट्स वॉच ने इसकी कड़ी आलोचना की थी। गोगोई ने 26 वर्षीय फारूक अहमद डार को अपने मिलिट्री वाहन के हुड के सामने बांधा और घिरे हुए सैनिकों और चुनाव कर्मचारियों को निकालने के लिए मतदान स्थल पर पहुंच कर सबको सुरक्षित निकाल लिया।

गोगोई ने पत्थरबाजों को चेतावनी वाला कागज डार के सीने पर चिपका कर 17 गांवों से गुजरते हुए 28 किलोमीटर का सफर तय किया था लेकिन उसने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कोई गोली नहीं चलाई थी। गोगोई ने बिना कोई गोली चलाए अपने साथियों की रक्षा की तो फिर उसकी कार्रवाई को अनुचित करार कैसे दिया जा सकता है ले​किन अफसोस जब सुरक्षा बलों के जवान पथराव में घायल होते हैं तो कोई कुछ नहीं बोलता, जब पत्थरबाजों पर कार्रवाई की जाती है तो मानवाधिकारों का शोर मचाया जाता है। सुरक्षा बलों द्वारा आत्मरक्षार्थ के लिए बल प्रयोग की आलोचना यह कहकर की जाती है कि सुरक्षा बल बेलगाम हो गए हैं। अलगाववादी नेेताओं की नज़र में जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों को छोड़कर सभी नागरिकों को जीने का अधिकार है।

यह भी सत्य है कि दुनिया में कहीं भी मीठी-मीठी बातों और आत्मसमर्पण से आतंकवाद का सफाया नहीं किया जा सकता। पत्थरबाजों के समर्थन में जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती लगातार बोलती आ रही हैं। क्या हम अपने जवानों की शहादत पर आंसू बहाते रहें, क्या जवानों के मानवाधिकार नहीं हैं, क्या उनके परिवारों के सदस्य के कोई मानवाधिकार नहीं हैं? मुठभेड़ स्थल पर आतंकियों को बचाने आई पत्थरबाजों की भीड़ से सुरक्षा बल कैसे निपटें? 1980 के दशक में जब आतंकी संगठनों, जिनमें कई पाकिस्तान से संचालित और उसके द्वारा समर्थित थे, ने कश्मीरी पंडितों, हिन्दू राजनेताओं और आम नागरिकों और सुरक्षा बलों को निशाना बनाया था तब आतंकवादियों की गोलियों का निशाना बने लोगों के मानवाधिकारों की किसी को याद नहीं आई।

घाटी से उजाड़े गए कश्मीरी पंडितों को देशभर में शरणार्थी कैम्पों में जीवन बिताना पड़ रहा है। उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। अब भी पुनः उन्हें घाटी में बसाने की कोई ठोस व्यवस्था नहीं बनी है। अपने ही देश में लोग पराए हो गए। सुरक्षा बलों को बदनाम करने के लिए लगातार प्रोपेगंडा किया गया ताकि हुर्रियत के ‘नाग’ कश्मीरी अवाम को बरगलाते रहें और उनकी राजनीति की दुकान चलती रहे। उनका उद्देश्य केवल राज्य में अशांति फैलाकर अपना राजनीतिक स्वार्थ साधना ही रहा। सैनिक कश्मीर में एक मुश्किल काम पर हैं और उन्हें अपना जीवन बचाने का अधिकार तो मिलना ही चाहिए।

इन सब सवालों को लेकर भारतीय सेना में देश की सेवा कर रहे लैफ्टिनेंट कर्नल केदार गोखले की बेटी प्रीति गोखले और नायब सूबेदार अनुज मिश्रा की बेटी काजल मिश्रा ने देश की सरहदों की हिफाजत करने वाले सैनिकों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर दस्तक दे दी है। बेटियों ने पूछा है कि सैनिकों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए क्या कोई व्यवस्था है? हाल ही में जम्मू-कश्मीर की महबूबा सरकार ने हजारों पत्थरबाजों के खिलाफ दर्ज मुकद्दमे वापिस ले लिए थे, वहीं मेजर आदित्य समेत कई सैनिकों पर नागरिकों की हत्या के आरोप में मुकद्दमे दर्ज कर दिए गए थे।

सैनिक हिंसक भीड़ के सारे अत्याचार सहते हैं लेकिन वह नागरिकों पर गोलियां नहीं चलाते। याचिका में बेटियों ने कहा है कि सेना की वर्दी पहन लेने के बाद किसी के भी मूलभूत अधिकार खत्म नहीं हो जाते। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है। अब वक्त आ गया है कि केन्द्र, राज्य सरकार और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को कोई न कोई नीति और तंत्र बनाना ही होगा।

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