महाराष्ट्र में शिवसेना की स्थापना 1966 में प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट और राजनीतिज्ञ बाला साहेब ठाकरे ने की थी। उसके बाद शिवसेना महाराष्ट्र में मजबूत क्षेत्रीय दल बन गई। कभी बाला साहेब ठाकरे का सिक्का चलता था। बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ उनसे मिलने उनके आवास पर जाते थे। शिवसेना के गठन के समय बाला साहेब ने नारा दिया था, ‘‘अंशी टके समाजकण, बीस टके राजकरण यानि 80 प्रतिशत समाज और 20 फीसदी राजनीति।’’ शिवसेना ने बाद में हिन्दुत्व के मुद्दे को अपना लिया। क्षेत्रवाद के गर्भ में जन्मी राजनीतिक पार्टी ने वैचारिक समानता के चलते भाजपा से गठबंधन किया। शिवसेना के दो नेता मनोहर जोशी और नारायण राणे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। हालांकि नारायण राणे अब शिवसेना से अलग हो चुके हैं। शिवसेना ने बड़े उतार-चढ़ाव देखे लेकिन बाला साहेब ठाकरे ने कभी किंग बनने की नहीं सोची, वे हमेशा किंगमेकर ही बने लेकिन उनके अवसान के बाद पार्टी की कमान उनके पुत्र उद्धव ठाकरे ने सम्भाली। शिवसेना के घटनाक्रम से हर कोई परिचित है। मैं शिवसेना के इतिहास में नहीं जाना चाहता। पार्टी की स्थापना के बाद यह पहली बार हुआ है जब शिवसेना की कमान ठाकरे परिवार के हाथों से निकल चुकी है। चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के धड़े वाली शिवसेना को असली शिवसेना माना। आयोग ने पार्टी का नाम और चिन्ह ‘धनुष तीर’ भी शिंदे को अलाट कर दिया। चुनाव आयाेग के इस फैसले से उद्धव ठाकरे को करारा झटका लगा है।
उद्धव ठाकरे ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात कही है लेकिन चुनाव आयोग ने फैसला अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए दिया है। चुनाव आयोग ने 77 पेज का फैसला बहुमत परीक्षण के आधार पर दिया है। शिवसेना के कुल 67 विधायकों और विधान परिषद सदस्यों में से 40 शिंदे गुट के पक्ष में थे। संसद के दोनों सदनों के 22 सांसदों में से 13 शिंदे के पक्ष में थे। चुनाव आयोग ने अपने फैसले में कहा कि सुनवाई के दौरान आयोग ने पाया कि शिवसेना का मौजूदा संविधान अलोकतांत्रिक है। बिना किसी चुनाव के पार्टी के पदाधिकारियों को अलोकतांत्रिक रूप से नियुक्त करके इसे विकृत कर दिया गया है। आयोग ने अपने आदेश में कहा कि चुनाव आयोग ने पाया कि शिवसेना के संविधान में 2018 में बदलाव किया गया लेकिन इसकी कोई जानकारी चुनाव आयोग को नहीं दी गई। ऐसे में ये बदलाव लागू नहीं होते हैं। चुनाव आयोग ने यह भी देखा कि 1999 में चुनाव आयोग द्वारा शिवसेना के मूल संविधान के अलोकतांत्रिक मानदंडों को स्वीकार नहीं किया गया था। इन अलोकतांत्रिक मानदंडों को गुप्त तरीके से वापस लाया गया। इसकी वजह से पार्टी एक जागीर के समान हो गई।
उद्धव गुट ने चुनाव आयोग के फैसले की आलोचना करते हुए आरोप लगाया है कि देश तानाशाही की ओर बढ़ रहा है लेकिन जनता उनके साथ है लेकिन एकनाथ शिंदे गुट ने चुनाव आयोग के फैसले को सत्य की जीत बताया है। एकनाथ शिंदे ने पार्टी के ज्यादातर विधायकों को अपने साथ लेकर उद्धव ठाकरे का तख्ता पलट दिया था और भाजपा के समर्थन से सरकार बना ली थी। चुनाव आयोग के फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। उद्धव के पास न तो तीर है न कमान। इस बात में कोई संदेह नहीं कि वह पिता की विरासत को सम्भालने में विफल रहे। भाजपा को छोड़ कांग्रेस और राकंपा के साथ गठबंधन करना उन्हें महंगा पड़ा। अतीत में भी ऐसा होता आया है। राजनीतिक दलों में फूट कोई नई बात नहीं। पार्टियां दो फाड़ होती आई हैं।
पार्टियों में इस तरह की लड़ाई के कई उदाहरण हैं। कभी लड़ाई कुुछ महीने में खत्म हो गई तो कभी ये वर्षों चली। कभी चुनाव आयोग ने बागी गुट को असली पार्टी माना, कभी बागी गुट को पार्टी और सिब्बल दिया। कभी दोनों गुटों को नया सिंबल मिला। ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें बगावत होने पर पार्टी उस धड़े के पास गई जिसके पास ज्यादा विधायकों और सांसदों का समर्थन था। जैसे 1969 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से निकाला गया तब उनके धड़े को कांग्रेस आर नाम मिला। 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा की पार्टी को दो बैल की जगह गाय और बछड़ा चुनाव चिह्न मिला। बाद में इंदिरा का धड़ा ही असली कांग्रेस के रूप में स्थापित हुआ। इसी तरह 1995 में एन. चन्द्रबाबू नायडू, 2016 में अखिलेश यादव ने बगावत की। बगावत के वक्त इन लोगों के पास ज्यादातर विधायकों का समर्थन था। मामला चुनाव आयाेग में जाने पर इन्हें ही पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह मिला।
क्षेत्रीय पार्टियां भी दो फाड़ होती रही हैं। 1989 के लोकसभा चुनावों से पहले गठित जनता दल भी दो फाड़ हुआ। अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में जाएगा। देखना होगा कि कानूनी रूप से अंतिम फैसला क्या आता है। अब सवाल सामने है कि चुनाव आयोग के फैसले से किसको फायदा होगा। क्या उद्धव ठाकरे गुट को विक्टिम कार्ड खेलने से राजनीतिक फायदा होगा या शिंदे गुट और मजबूत होगा। लोकतंत्र में सबसे बड़ा सवाल यही होता है कि जनता किसके साथ है। क्या जनता बाला साहेब ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे का साथ देगी या एकनाथ शिंदे का। फैसला जनता ही करेगी।