पिछले साल 2017 में इसी सावन के महीने में आधी रात को 11 बजे से लेकर 4 बजे के बीच मैंने भगवान शिव के दर्शन और गंगा का पवित्र जल लाने के लिए कांवडि़यों के हाईफाई व्हीकल को अपनी प्रैस के सामने से रिंग रोड पर गुजरते हुए और कान फोड़ू संगीत के साथ नाचते-गाते हुए देखा और सुना। मैं पूरी तरह डिस्टर्ब हो गया और मैंने उसकी तुलना दिल्ली की कॉलोनी में 11 बजे के बाद लाउडस्पीकर बजने पर पुलिस द्वारा रौब से इसे बंद कराने की चेतावनियाें से की। ठीक एक साल बाद इसी सावन के महीने में चार दिन पहले मोतीनगर मैट्रो स्टेशन के पास एक कार एक कांवडि़ए को छू जाने भर से कांवडि़यों द्वारा कानून की धज्जियां उड़ाते हुए दिल्ली में देखा गया। लगभग 15 कांवड़ियों ने हाथ में बेसबॉल के बैट से उस कार की धज्जियां उड़ा दीं और उसे पलट दिया। टी.वी. चैनलों पर पूरे देश ने यह तमाशा देखा। कुछ नहीं हुआ, कोई एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई।
दो दिन बाद दिखावे के तौर पर एक गिरफ्तारी हुई। सवाल पैदा होता है कि महज धर्म की आड़ में चाहे वो हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई क्यों न हो, आम जनता को बिना मतलब परेशान करने और कानून व्यवस्था को अपने हाथ में लेने की इजाजत क्यों दी जा रही है? इस मामले में 24 घंटे पहले सुप्रीम कोर्ट ने कांवडि़यों के इस तांडव का स्वयं गंभीर संज्ञान लिया और कहा कि क्या किसी की संपत्ति को बिना मतलब नुक्सान पहुंचाया जा सकता है? ‘सरकार चुपचाप तमाशा देख रही है, पुलिस बेबस है। आप दूसरों की प्रॉपर्टी को नष्ट कर रहे हैं और आगजनी कर रहे हैं तो अपना घर क्यों नहीं जला सकते? हिंसा, तोड़फोड़, दंगे, उत्पात और प्रदर्शनों के दौरान चाहे वे एससी-एसटी जजमेंट के बाद की हिंसा हो या कोटे की मांग में मराठा आंदोलन हो, भीड़ की हिंसा को रोकने के लिए क्या गाइडलाइंस अब हमें लानी होगी?’ सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी दर्शाती है कि किस प्रकार देश के मौजूदा हालात को लेकर सरकार चुप है और न्याय के मंदिर में माननीय जजों को ही आवाज बुलंद करनी पड़ रही है।
सुप्रीम कोर्ट के इस संज्ञान और सख्त रुख को हम नमन करते हैं। हकीकत यही है कि कभी मुसलमानों की शब्बेरात के दौरान कायदे कानून तोड़ता सड़कों पर बाइक सवारों का हुजूम है तो कहीं किसी गुरु पर्व के दौरान युवकों का सड़कों पर निकलकर बाइकों से स्टंट कारनामे करने की होड़ है। कहीं कांवडि़यों की हिंदू धर्म की आड़ में हिंसा है तो कहीं क्रिसमस के मौके पर चर्चों के आगे एक-दूसरे को बधाई देते हुए वाहनों को बीच सड़क पर खड़ा करने की बीमारियां हैं। आम आदमी को कितनी दिक्कत होती है? एक पद्मावत फिल्म के रिलीज होने को लेकर तोड़फोड़ और कहीं आरक्षण की मांग में राजस्थान, हरियाणा या महाराष्ट्र में प्रदर्शनों के दौरान संपत्तियां जलाने की एक परंपरा सी चल निकली है। हम सीधा सा धर्म पर केंद्रित होना चाहते हैं कि क्यों नहीं सब धर्मों से जुड़े लोग अपने-अपने यहां इस मामले में कोई ठोस व्यवस्था करते? क्यों नहीं बिगड़ैल युवकों को तोड़फोड़ से रोकते? जिस मर्जी आन-बान-शान से अपने धर्म को परम मानकर इसका निर्वाह करें, कांवड़ लाएं या फिर शब्बेरात में शिरकत करें, गुरुद्वारा जाएं या चर्च या मस्जिद जब आप वहां अपने धर्म का सम्मान कर सकते हैं तो फिर सामाजिक जीवन में कानून को अपने हाथ में क्यों लेते हैं?
पुलिस क्यों लाचार बनी रहती है? रमेश नगर में जो कुछ कांवड़ियों ने किया तो पुलिस ने अपने हाईटैक होने के दावे को सही साबित करते हुए वहां फोर्स क्यों नहीं भेजी? मौका था, दस्तूर भी था ये कांवडि़ए काबू किए जा सकते थे। इसका सही संदेश जनता के बीच पुलिस की सख्ती से जा सकता था। सुप्रीम कोर्ट ने ठीक कहा है कि अगर कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने पर, तोड़फोड़ और हिंसा पर अगर इलाके के पुलिस अधिकारियों की जिम्मेदारी तय कर दी जाए तो सब-कुछ ठीक हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकार हिंसा के प्रति गंभीरता जताते हुए कानून में संशोधन की बात कहती है, लेकिन इसका हम इंतजार नहीं कर सकते। धर्म-कर्म की आड़ में कोई भी धर्म क्यों न हो सब कुछ अवैध चल रहा है चाहे बाबे हों या विभिन्न धर्मों के तथाकथित अग्रणी लोग, सब के सब कानून को तोड़कर चल रहे हैं। सैंकड़ों बाबा बलात्कार और फ्रॉड के चक्कर में बंद हो रहे हैं। बात भावनाओं की है। अब अगर कोई इस धर्म में बाबाओं की बात सुनकर, धर्मगुरुओं की बात सुनकर अंधा हो जाए तो क्या पुलिस भी अपनी आंखें बंद कर लेगी।
सुप्रीम कोर्ट ने कानून और प्रशासन की आंखें खोलने का अलर्ट दिया है। समय आ गया है कि सरकारों को जाग जाना चाहिए। पिछले दिनों रेप के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी ही कुछ टिप्पणियां की थीं। धर्म की आड़ में तोड़फोड़, हिंसा और अवैध धंधे बंद होने चाहिएं। यही देश के हित में है। सुप्रीम कोर्ट का यह स्टैंड हमारी मौजूदा और पिछली सरकारों की कार्यशैली तथा व्यवस्था की पोल खोल रहा है। आओ संकल्प लें कि धर्म-कर्म की आड़ में कुछ भी अवैध करने वालों का डटकर सामना करें यह भी धर्म ही बताता है क्योंकि अपराध करना और अपराध होते हुए देखना दोनों ही गुनाह की श्रेणी में आते हैं।