आगामी 12 जून को होने वाली विपक्षी दलों की संयुक्त बैठक स्थगित हो गई है और अब उम्मीद है कि यह 23 जून को पटना में ही होगी। स्वतन्त्र भारत के लोकतन्त्र में विपक्ष का महत्व 1952 के पहले आम चुनावों से ही इस प्रकार रहा है कि अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध देश में सैकड़ों राजनीतिक दल गठित हो गये थे। पहले आम चुनाव अक्तूबर 1951 से मार्च 1952 तक पूरे छह महीने चले थे मगर इनसे भारत में यह तय हो गया था कि भविष्य की राजनीति में सत्ता और विपक्ष के दो चुनावी विमर्श होंगे जिनमें से देश के मतदाताओं को एक का चुनाव करके अपनी मनपसन्द सरकार अपने एक वोट की ताकत से गठित करने का अधिकार होगा। लगातार दो सौ वर्षों तक अंग्रेजों की गुलामी में रहने वाले भारतीयों को स्वतन्त्रता दिलाने वाले महात्मा गांधी ने यह वोट का अधिकार देकर तब पूरी दुनिया में इतिहास रच दिया था। भारत के मजदूर को भी शहंशाह बना दिया था क्योंकि उसके एक वोट की कीमत भी वही थी जो उस समय के किसी राजा-महाराज या नवाब के वोट की।
आजादी के 75वें साल में भी इसमें कोई फर्क नहीं पड़ा है और विपक्ष की भूमिका आज भी महत्वपूर्ण बनी हुई है। अतः विपक्षी दलों की संयुक्त बैठक की महत्ता को कम करके नहीं देखा जा सकता है क्योंकि लोकतन्त्र तभी कारगर और मजबूत हो सकता है जबकि विपक्ष भी मजबूत हो। इसी के चलते आम जनता हर पांच साल बाद मतदान करके अपनी पसन्द की सरकार का चयन करती है लेकिन वर्तमान समय में विपक्षी दलों की एकता को कुछ लोग ‘गूलर के फूल’ को फूल की तरह देखना चाह रहे हैं। वास्तविकता यह नहीं है। कांग्रेस के अलावा फिलहाल जितने भी विपक्षी दल हैं वे सभी क्षेत्रीय दल हैं। जबकि पटना में होने वाली बैठक में 2024 के लोकसभा के राष्ट्रीय चुनावों के नजरिये से बैठक होनी है। इन चुनावों में इन सभी दलों को सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से लोहा लेना होगा। भाजपा का रुतबा फिलहाल यह है कि केवल दक्षिणी राज्यों को छोड़ कर इसका डंका शेष पूरे भारत में बजता सा दिखाई दे रहा है। दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी दक्षिणी राज्यों में द्रमुक जैसे मजबूत क्षेत्रीय दलों के रहते लोकसभा चुनावों के सन्दर्भ में शक्तिशाली मानी जाती है।
अब कर्नाटक जीतने के बाद उसका मनोबल औऱ बढ़ा हुआ है मगर पार्टी तमिलनाडु में द्रमुक से समझौता करके ही इस राज्य की 40 के लगभग सीटें भाजपा के सहयोगी दलों के लिए मुश्किल बना सकती है। अतः विपक्षी दलों के सामने शेष राज्यों में एक साझा मंच तैयार करके ऐसा विमर्श खड़ा करने की चुनौती है जिसे देश की जनता भाजपा के विमर्श के मुकाबले वरीयता देने पर मजबूर हो जाये। हालांकि प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के आगे फिलहाल विपक्ष का कोई एेसा नेता नजर नहीं आ रहा है जो उनकी बराबरी कर सके। पार्टी के तौर पर कांग्रेस पार्टी भाजपा के मुकाबले शक्तिशाली विकल्प पेश करने के मार्ग पर आगे बढ़ती नजर आ रही है औऱ क्षेत्रीय विपक्षी दल इस हकीकत से अब वाकिफ हो चुके हैं। अत: बिना कांग्रेस की छत्रछाया में आये उनका गुजारा संभव नहीं दिखाई पड़ रहा है। यही वजह है कि पहले से निश्चित 12 जून को होने वाली पटना बैठक को आगे 23 जून के लिए टाला जा रहा है क्योंकि 12 जून को न तो कांग्रेस अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे पटना जा सकते थे और न श्री राहुल गांधी। राहुल गांधी कांग्रेस के अब सबसे बड़े नेता हो चुके हैं। कर्नाटक विजय का सेहरा उनके सिर बंध चुका है और आजकल अमेरिका में वह भारतीय राजनीति के उन पेंचों को खोल रहे हैं जिनका असर 2024 के लोकसभा चुनावों में आना लाजिमी लगता है। बदली छवि के साथ राहुल 2024 के चुनाव प्रचार में उतरेंगे।
राहुल गांधी 18 जून तक अमेरिका से लौटेंगे अतः विपक्षी बैठक का टलना स्वाभाविक था। वैसे जब 12 जून तारीख जद(यू) नेता व बिहार के मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार ने तय की थी तो तभी कुछ हिचकचाहट कांग्रेस हलकों में हुई थी क्योंकि 1975 को इसी दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी का रायबरेली सीट से लोकसभा चुनाव ‘अवैध’ घोषित कर दिया था जिसकी वजह से 25 जून को उन्होंने पूरे देश में आन्तरिक इमरजेंसी लगा दी थी। मगर इस जून महीने का विपक्षी राजनीति में बहुत महत्व है और ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी भी संकेतों में इसका फायदा अब विपक्षी सौहबत में उठाने को तैयार है। संयुक्त विपक्ष का मुद्दा यही रहेगा कि लोकसभा की कुल 545 सीटों में अधिकतम पर किस तरह भाजपा के प्रत्याशी के खिलाफ विपक्ष का एक प्रत्याशी उतारा जाये। यह कैसे होगा और इसकी संभावना में क्या-क्या विरोध आ सकते हैं इसकी चर्चा फिर कभी करूंगा।