उत्तर प्रदेश को अपराध मुुक्त बनाने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की संकल्प शक्ति काफी मजबूत है। तभी तो पुलिस के विशेष कार्यबल ने झांसी की मुठभेड़ में माफिया डॉन अतीक अहमद के बेटे असद और उसके साथी शूटर गुलाम को मार गिराकर अन्य अपराधियों को कड़ा संदेश दे दिया है कि राज्य में सरकार आपराधिक गतिविधियों को सहन नहीं करेगी। उत्तर प्रदेश पुलिस का मनोबल भी काफी बढ़ा हुआ है। अतीक अहमद जेल में बैठा बेटे की मौत पर आंसू बहा रहा है, लेकिन सवाल यह है कि क्या उसे उन परिवारों के दुख और पीड़ा का अहसास है जिनके बच्चे उसने मौत के घाट उतारे थे। अतीक अहमद के माफिया बनने की कहानी किसी से छिपी नहीं है। मुठभेड़ के बाद से ही विपक्ष ने इस पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए थे। किसी को इसमें चुनावी नफा-नुक्सान नजर आया तो कोई मारे गए अपराधियों को मजहब का मुद्दा बनाकर भावनात्मक कार्ड चला रहा है। अतीक के बेटे के एनकाउंटर पर गजब की पैंतरेबाजी हो रही है। समाजवादी पार्टी ने जब उमेशपाल का मर्डर हुआ था उसने कानून व्यवस्था पर सवाल उठाए थे और जब हत्यारे का एनकाउंटर हुआ तो उसे चुनावी स्टंट बता दिया गया। बसपा ने भी एनकाउंटर पर सवाल खड़े किए।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार के पिछले 6 साल के कार्यकाल में 10 हजार 9 सौ से अधिक पुलिस मुठभेड़ें हुई हैं, जिनमें 183 अपराधी मारे जा चुके हैं, 23 हजार 300 से अधिक अपराधियों को गिरफ्तार किया गया है। 5 हजार 46 अपराधी घायल हुए हैं जबकि 1443 पुलिसकर्मी घायल हुए हैं। पुलिस आंकड़ों के मुताबिक 20 मार्च, 2017 से राज्य में हुई मुठभेड़ों में अब तक 13 पुलिसकर्मी शहीद हो चुके हैं। इनमें से एक पुलिस उपाधीक्षक समेत वे आठ पुलिसकर्मी भी शामिल हैं जो जुलाई 2020 में कानपुर के बिकरू गांव में घात लगाकर बैठे गैंगस्टर विकास दूबे के साथियों की गोलीबारी में मारे गए थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि अपराधियों पर कड़ी कार्रवाई से अपराधी अब थरथर कांपने लगे हैं और राज्य की कानून व्यवस्था में जबरदस्त सुधार हुआ है। यह देश की विडम्बना ही रही कि राजनीति का अपराधीकरण इस देश में बड़ी तेजी से हुआ और बाहुबली अपराधी लोग माननीय संसद और विधायक बनते गए। यह कितना शर्मनाक है कि जिस फूलपुर संसदीय सीट से देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जीत कर आते थे, उसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व अतीक अहमद ने किया। सांसद बनने के अलावा अतीक अहमद पांच बार विधायक भी रहा। अतीक ही नहीं उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य राज्यों में अपराधी धड़ल्ले से चुनाव जीतते रहे हैं।
मुठभेड़ों पर सवाल पहले भी उठते रहे हैं और जांच भी होती रही है। मुठभेड़ों को लेकर सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने गाइडलाइन्स और प्रक्रिया बनाई हुई है। 23 सितम्बर, 2014 को तत्कालीन चीफ जस्टिस आरएम लोढा और आरएफ नरीमन की पीठ ने इस बाबत 15 पॉइंट्स की विस्तृत गाइडलाइंस जारी की थी। कोर्ट ने एक फैसले में कहा था, ‘‘पुलिस की कार्रवाई में इस तरह से होने वाली मौत के सभी मामलों में मजिस्ट्रेट जांच जरूरी है। जांच में मृतक के परिवार के सदस्य को भी शामिल किया जाना चाहिए। आपराधिक कार्रवाई का आरोप लगाते हुए पुलिस के खिलाफ शिकायत किए जाने पर हर मामले में आईपीसी की संबंधित धाराओं में एक एफआईआर अवश्य दर्ज की जानी चाहिए। यह गैर-इरादतन हत्या का मामला बनता है।’’ कोर्ट ने आगे कहा था कि सीआरपीसी 1973 की धारा 176 के तहत की गई जांच में यह पता चलना चाहिए कि क्या इस तरह का एक्शन जायज था या नहीं? जांच के बाद धारा 190 के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट को एक रिपोर्ट भेजी जानी चाहिए।
इतना ही नहीं मुठभेड़ की घटना के दौरान पुलिस जिन हथियारों का उपयोग करती है उसे तुरंत जमा कराना होता है। घटना की एफआईआर भी दर्ज करने के बाद कोर्ट को भेजी जाती है। इसी तरह मानवाधिकार आयोग को भी रिपोर्ट देनी जरूरी होती है। यह गाइडलाइन्स इसीलिए तैयार की गई है ताकि सरकारें और पुलिस अपने अधिकारों का बेवजह इस्तेमाल न कर सकें। इनका औचित्य भी यही है कि पुलिस किसी भी तरह की संविधान विरोधी मनमानी न कर सके। वोट बैंक की राजनीति के चलते मुठभेड़ों पर सियासत शुरू हो जाती है।
सवाल यह भी है कि आखिर राजनीतिक दल ऐसे अपराधियों से दूरी बनाना कब शुरू करेंगे। जब तक राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को उम्मीदवार बनाना बंद नहीं करते तब तक ऐसे बाहुबली और माफिया पनपते रहेंगे। जब तक अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता रहेगा तब तक इन पर लगाम लगाना मुश्किल होगा। अपराध की दुनिया में नए-नए चेहरे सामने आते रहेंगे। जरूरत इस बात की है कि मुठभेड़ों पर बेवजह की सियासत न की जाए और राजनीति को अपराध मुक्त बनाने के लिए ईमानदारी से प्रयास किए जाएं। काश! अतीक अहमद अपने बेटों के हाथ खून से न रंगता और उन्हें पढ़ा-लिखा कर संभ्रात नागरिक बनाता तो आज यह नौबत नहीं आती।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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