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यू.पी. का पश्चिमी उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश के चुनावों में जिस तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर जोर दिया जा रहा है और भारतीय जनता पार्टी के सभी बड़े नेता गृहमन्त्री अमित शाह से लेकर रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह व मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ तक इसके शहरों व कस्बों में घर-घर प्रचार कर रहे हैं

उत्तर प्रदेश के चुनावों में जिस तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर जोर दिया जा रहा है और भारतीय जनता पार्टी के सभी बड़े नेता गृहमन्त्री अमित शाह से लेकर रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह व मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ तक इसके शहरों व कस्बों में घर-घर प्रचार कर रहे हैं उससे इस क्षेत्र के राजनीतिक व सामाजिक महत्व को समझा जा सकता है। मगर इसका एक आर्थिक पक्ष भी है क्योंकि राज्य का पश्चिमी इलाका पूरे प्रदेश का सबसे सम्पन्न क्षेत्र समझा जाता है और यहां खेतीहर जातियां ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अहम किरदार निभाती हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह इस इलाके में प्राकृतिक जल स्रोतों की बहुतायत है जिसकी वजह से यहां खेती की फसलें लहलहाती रहती हैं और गेहूं, गन्ना, उड़द, सरसों आदि की पारम्परिक फसलों के अलावा भी यहां के किसान आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल करके साल में कई विविध फसलें लेने में सक्षम हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के केन्द्र के रूप में मेरठ को माना जा सकता है जिसका ऐतिहासिक रूप से विशेष महत्व रहा है क्योंकि यहीं से चार ‘पथ’ सोनीपत, पानीपत, बागपत व मारी पत के मार्ग  प्रशस्त होते हैं और प्राचीन काल के प्रागौतिहासिक महाभारत युद्ध से लेकर मध्य युगीन मुस्लिम सुल्तानों व मुगल बादशाहों के ‘देशज’ रजवाड़ों के साथ युद्ध करके दिल्ली की गद्दी पर आसीन होने का यह प्रमुख इलाका भी रहा है। अतः इस इलाके के लोग स्वाभाविक तौर पर अच्छे योद्धा भी माने जाते हैं। परन्तु स्वतन्त्र भारत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश पहली बार तब प्रकाश में आया जब इस क्षेत्र के कांग्रेस नेता चौधरी चरण सिंह ने भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू की कृषि नीति का कांग्रेस के खुले अधिवेशन में ही पचास के दशक के शुरू में विरोध किया और सोवियत संघ की तर्ज पर सहकारी खेती को भारत में पूर्णतः अव्यावहारिक बताया। इसके बाद पं. नेहरू ने अपना विचार त्याग दिया मगर जमींदारी उन्मूलन की तरफ जोर- शोर से काम किया जिसका पूरा समर्थन चौधरी चरण सिंह ने किया। परन्तु 1967 के आते-आते कांग्रेस में रहते हुए ही चौधरी साहब में राज्य में कांग्रेस नेतृत्व पर केवल कुछ संभ्रान्त कहे जाने वाले लोगों का कब्जा होने की वजह से विद्रोह उभरा और उन्होंने 1967 के चुनावों के बाद केवल 14 विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ कर अपना नया गुट बना लिया और कांग्रेस विरोधी अन्य दलों जनसंघ, स्वतन्त्र पार्टी, संसोपा, प्रसोपा आदि के साथ संयुक्त विधायक दल की सरकार बनाई जो ज्यादा समय तक नहीं चली और गिर गई। 
1967 के चुनावों में उत्तर प्रदेश में जनसंघ के कांग्रेस के बाद सर्वाधिक 99 विधायक चुने गये थे। मगर संविद सरकार गिर जाने के बाद चौधरी साहब ने अपनी अलग ‘भारतीय क्रान्ति दल’ पार्टी बनाई और जब राज्य में 1969 में मध्यावधि चुनाव हुए तो कन्धे पर हल लिये किसान के चुनाव निशान के साथ उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ा। इन चुनावों में चौधरी साहब की क्रान्ति दल पार्टी को अपार सफलता प्राप्त हुई और उसे लगभग 117 स्थान प्राप्त हुए और जनसंघ तीसरे नम्बर पर 48 विधायकों के साथ रही। भारतीय क्रान्तिदल को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अद्भुत सफलता मिली और औसतन हर दस में इसके आठ प्रत्याशी जीते। परन्तु पूर्वी उत्तर प्रदेश में असली लड़ाई कांग्रेस व जनसंघ और संसोपा के बीच ही हुई। यह विजय चौधरी साहब ने ग्रामीण वोट बैंक का जनाधार बना कर जीती और जाति, धर्म के निरपेक्ष लोगों ने चौधरी साहब की पार्टी को वोट दिया। 
सबसे बड़ा कमाल स्व. चरण सिंह ने यह किया कि उन्होंने देश में पहली बार चुनावी युद्ध में ग्रामीण शक्ति को उभार कर खेती और गांव की तरफ सत्ता का मुख मोड़ने में सफलता प्राप्त की। और जीवन पर्यन्त चौधरी साहब की राजनीतिक दिशा इसके बाद यही रही। परन्तु राजनीति में परिवारवाद के वह कट्टर दुश्मन थे जिसकी वजह से अपने जीवनकाल में वह अपने पुत्र स्व. अजीत सिंह को राजनीति में नहीं लाये। अतः उनकी मृत्यु के बाद जब उनके पुत्र अजीत सिंह ने चौधरी साहब की पार्टी लोकदल (कालान्तर में क्रान्ति दल का नाम यही हो गया था और इसमें कई अन्य विरोधी पार्टियों का भी विलय हो गया था) की कमान संभाली तो वह केवल जाटों के नेता बन कर रह गये और चौधरी साहब की महान विरासत को संभालने में सक्षम नहीं हो सके। फिर भी अजीत सिंह चौधरी साहब की विरासत के खंडहरों को ही जैसे-तैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बहुल जिलों में ही जोड़ने की तरतीब भिड़ाते रहे। लेकिन 2014 में राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर श्री नरेन्द्र मोदी के उभरने के बाद इस विरासत का पूरी तरह रूपान्तरण हो गया और लोकदल कागजों में सिमटने वाली पार्टी बनती चली गई। 
चौधरी साहब की विरासत पर भाजपा ने इस तरह कब्जा किया कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय इस पार्टी के साथ जुड़ कर अपने प्राचीन गौरव की तरफ ज्यादा अभिप्रेरित होने लगा। परन्तु कृषि कानूनों के खिलाफ चले किसान आन्दोलन ने  लोकदल को पुनः अपनी जड़ें फैलाने का अवसर दिया और चौधरी चरण सिंह के पौत्र श्री जयन्त चौधरी ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए पुनः अपने जनाधार को वापस लाने के प्रयास करने शुरू किये। परन्तु इस क्रम में वह यह तथ्य भूल गये कि जिस समाजवादी पार्टी के साथ उन्होंने चुनाव गठबन्धन किया उसी ने लोकदल का पुराना जनाधार निपटा दिया था जिसकी वजह से चौधरी अजीत सिंह तक अपने ही गढ़ में चुनाव हारने लगे थे। अतः भाजपा के नेतागण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में डेरा डाल कर अपने नये बने जनाधार को अपने पास ही टिकाये रखने के लिए रात-दिन एक कर रहे हैं और जयन्त चौधरी से कह रहे हैं कि वह गलत घर में चले गये हैं। 

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