भारत की राजनीति बड़ी अजीब है। जब चुनाव का मौसम आता है तो राजनीति का रंग बदल जाता है सारा देश ही चुनाव मय हो जाता है। राजनीति में कोई बड़ा नेता दूसरे नेता के यहां जाकर जूस पीता है तो इसे जूस डिप्लोमेसी का जाता है। चाय पीता है तो टी डिप्लोमेसी कहा जाता है। डिनर करता है तो डिनर डिप्लोमेसी कहा जाता है। बाहर निकलते हैं तो पत्रकार पूछते हैं कि क्या महागठबंधन पर बात बनी क्या नतीजा निकला। आप उलझे रहे इस तालमेल में और विमर्श करते रहे कि गठबंधन और तालमेल में क्या गुणात्मक फर्क है। यह लोग बड़े ब्रह्मज्ञानी हैं अब धर्म से ऊपर उठ गए हैं। धर्मनिरपेक्ष हो गए हैं। इसलिए सारी धर्मनिरपेक्ष शक्तियां हर राज्य में गठबंधन कर रही हैं।
एक कवि की पक्तियां याद आ रही हैं :-
ताल के साथ सुर को जैसे उठाया-गिराया जाता है,
ऐसा ही चरित्र, हमारे नेताओं का पाया जाता है।
लेकिन ताल और सुर में एक तालमेल होता है
जो हंसी-खेल नहीं है,
जबकि राजनेता और चरित्र में कोई तालमेल नहीं।
कब कौन कितना गिर जाए कहा नहीं जा सकता
चरित्र के बिना राजनीति में रहा भी नहीं जा सकता।
देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश पर पूरे भारत की नजरें लगी हुई हैं। दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही होकर गुजरता है। जिसके साथ उत्तर प्रदेश हो, वही सरकार बनाने में सफल हो जाता है। उत्तर प्रदेश की सियासत में कई नेता अपनी किस्मत आजमा रहे हैं, इसमें कई ऐसे नेता हैं जो अकेले और बिना किसी राजनीतिक पृष्ठिभूमि के चुनावी मैदान में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं तो कुछ ऐसे नेता हैं जो अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। इनमें गांधी परिवार, मुलायम सिंह यादव और चौधरी चरण सिंह परिवार की विरासत को इन परिवारों के नेता आगे बढ़ा रहे हैं। सोनिया गांधी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव और जयंत चौधरी चुनाव मैदान में हैं। 1967 में पहली बार कांग्रेस की सत्ता को बड़ा झटका देने वाले नेता के तौर पर चौधरी चरण सिंह उभरे थे।
यह वह दौर था जब चौधरी चरण सिंह कांग्रेस से अपनी दूरी बना रहे थे, इस वक्त सैफई से मुलायम सिंह यादव का उन्हें साथ मिला था। यह वही दौर जब इंदिरा गांधी पहला चुनाव लड़ रही थी। बदलते राजीनतिक घटकाक्रम के बीच बहुजन समाज पार्टी का उदय हुआ और दलित सियासत में कांशीराम और बहन मायावती का उदय हुआ और धीरे-धीरे कांग्रेस की जमीन खिसकने लगी। मायावती और भाजपा का गठबंधन हुआ तो सरकारें बनी लेकिन मतभेदों के चलते गिर गईं। राम मंदिर आंदोलन के बाद तो पूरा परिदृश्य ही बदल गया। भाजपा नेे चुनावी समीकरण ही बदल दिए। 2014 के चुनावों में नरेन्द्र मोदी की लहर इतनी जबरदस्त रही कि भाजपा ने राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से 71 पर जीत हासिल की। नरेन्द्र मोदी को सत्ता से हटाने के लिए धुर विरोधी रहे सपा-बसपा ने चुनावी गठबंधन किया और इस गठबंधन में रालोद को भी शामिल कर लिया गया। इस गठबंधन से कांग्रेस का तालमेल है। सपा-बसपा ने बड़ी चतुराई से कांग्रेस को गठबंधन में कोई जगह नहीं दी। उसके लिए केवल अमेठी और रायबरेली की सीट छोड़ दी।
हाल ही में कांग्रेस की ओर से प्रियंका गांधी ने भी राजनीति में दस्तक दे दी और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि सपा-बसपा रालोद गठबंधन से भाजपा को कड़ी चुनौती मिलेगी लेकिन कांग्रेस के अकेले चुनाव लड़ने की स्थिति में परिदृश्य क्या बनता है, इसका आकलन करना होगा। कांग्रेस के अनेक नेता गठबंधन में शामिल होने के पक्षधर रहे। उनकी दलील थी कि इसमें कांग्रेस के 8-10 सीटें जीतने की उम्मीद भी बनी रहेगी और गठबंधन के अन्य दलों के लिए 30-35 सीटें जीतने की भी। उनकी दलील थी कि भाजपा को अगर 25 सीटों तक सीमित कर दिया जाए तो नरेन्द्र मोदी के सरकार बनाने की आशाएं धूमिल की जा सकती हैं। सपा-बसपा में बड़े नेताओं के बीच चाहे कितना ही अच्छा गठबंधन हो जमीनी स्तर पर बसपा के कैडर वोटर और सपा के यादव वोटरों के बीच तालमेल आसान नहीं। कांग्रेस अब उत्तर प्रदेश में छोटे-छोटे दलों से समझौता कर रही है। कांग्रेस की बड़ी समस्या उसका कमजोर सांगठनिक ढांचा है।
कांग्रेस ने चुनावी कार्ड खेलते हुए सपा-बसपा के दिग्गजों के लिए 7 सीटें छोड़ दी हैं। इसके बाद मायावती और अखिलेश ने भी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें कांग्रेस से किसी भी तरह की मदद की जरूरत नहीं है। अभी तक कांग्रेस वह गति नहीं पकड़ पायी जितनी कि चुनावों के लिए जरूरत है। देखना होगा प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का कितना संचार करती हैं और पार्टी के वोट बैंक में कितना इजाफा करती हैं ऐसे में भाजपा के लिए चुनौतियां कम नहीं लेकिन नरेन्द्र मोदी को उत्तर प्रदेश की जनता प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है। अनेक सीटों पर तिकोणे मुकाबले में भाजपा लाभ की स्थिति में है। भाजपा का वोट बैंक पक्का है उसका जनाधार कम नहीं हुआ है। इसलिए उम्मीद है कि कड़े मुकाबले के बावजूद भाजपा सम्मानजनक सीटें हासिल कर लेगी।