देश के 21 राजनैतिक दलों ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करके ईवीएम की मतदान प्रक्रिया को सवालिया निशानों के दायरे में ही रखते हुए मांग की है कि इसके साथ लगी हुई वीवीपैट मशीन से निकली रसीदी पर्चियों को कम से कम पचास प्रतिशत मतदान केन्द्रों पर गिना जाये। गौर से देखा जाये तो यह मांग नाजायज नहीं है क्योंकि भारत के पूरे प्रजातन्त्र की नींव चुनाव प्रणाली की सत्यता, पारदर्शिता और प्रामाणिकता पर ही टिकी हुई है।
चुनाव आयोग का स्वतन्त्र व निष्पक्ष अस्तित्व भी इस बात की गारंटी देने के लिए ही है कि आम मतदाता द्वारा अपनी मनपसन्द के प्रत्याशी को डाले गये वोट में किसी भी प्रकार का सन्देह किसी भी स्तर पर न हो। हमने जिस मतदान प्रक्रिया की मार्फत चुनावी सफर शुरू किया था उसमें बैलेट पेपर की मार्फत मतदाता अपनी पसन्द का चुनाव करके नतीजों का इंतजार करता था परंतु पिछले दो दशक से ईवीएम मशीनाें का प्रयोग करके हमने इस प्रणाली में बदलाव किया।
इसका उद्देश्य जल्दी चुनाव नतीजे पाने के साथ ही प्रक्रियागत मुश्किलों पर निजात पाना इस तरह था कि मतदाताओं के विश्वास में किसी भी प्रकार की कमी न आने पाए परन्तु यह लक्ष्य इसलिए पूरा नहीं हो सका क्योंकि नई टैक्नोलोजी के प्रयोग ने कुछ ऐसे नये सवाल खड़े कर दिये जिसकी वजह से मतदाताओं के यकीन में कमी आने लगी और उन्हें यहां तक महसूस होने लगा कि उनके और उनके मनपसन्द प्रत्याशी या पार्टी के बीच में मशीन के आ जाने से उनके वोट की गोपनीयता की पवित्रता भंग होने का खतरा पैदा हो रहा है। यह सन्देह गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि मतदाता के वोट और प्रत्याशी के बीच में एक तीसरी चीज ‘मशीन’ आ गई थी।
इस प्रकार सारा दारोमदार मशीन पर ही आ गया कि वह मतदाता द्वारा डाले गये वोट को उसकी पसन्द के अनुसार ही जाहिर करे। इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय में पहले भी कई बार याचिकाएं दायर हुईं और बहस-सुनवाई भी हुई जिसे देखते हुए विद्वान न्यायाधीशों ने चुनाव आयोग की ईवीएम के हक में दी गई दलीलों को देखते हुए आदेश दिया था कि इन मशीनों के साथ वीवीपैट मशीनें भी लगाई जाएं जिसमें मतदाता के सामने ही यह प्रमाणित हो जायेगा कि उसका वोट उसी प्रत्याशी को मिला है जिसके निशान के सामने उसने मशीन में बटन दबाया है। इस वीवीपैट मशीन में केवल सात सैकेंड के समय के लिए ही वह पर्ची आती है जिसमें देखकर मतदाता सन्तोष कर सकता है कि उसका वोट सही पड़ा है परन्तु इस प्रणाली का दारोमदार भी पूरी तरह टैक्नोलोजी पर ही है।
चुनावों में ईवीएम मशीनों के खराब होने की शिकायतें भी धड़ल्ले से मिलती रहती हैं जिन्हें सुधारने का जिम्मा भी चुनाव आयोग लेता है। इसके लिए उसके पास तकनीशियनों का पूरा अमला मौजूद रहता है। एेसी शिकायतें भी राजनैतिक दलों ने ही चुनाव आयोग से की थीं कि ईवीएम मशीन को टैक्नोलोजी के इस्तेमाल से ही मनमाफिक परिणाम पाने के लिए घुमाया जा सकता है। इस पर कई लोगों ने किताबें तक लिख डालीं। कुछ ने इसका सार्वजनिक रूप से मुजाहिरा तक किया था। इसलिए वीवीपैट मशीनों में लगाया जाना मुनासिब और तार्किक कदम कहा जा सकता था मगर यह सब चुनाव आयोग की इस जिद के चलते ही किया गया कि ईवीएम मशीनों में कोई गड़बड़ी संभव नहीं है। जिसे देखते हुए ही सर्वोच्च न्यायालय ने वीवीपैट मशीन लगाने का फैसला दिया था
परन्तु चुनाव आयोग ने यह नियम बना दिया कि किसी विधानसभा क्षेत्र के केवल एक मतदान केन्द्र में ही वीवीपैट पर्चियों का ईवीए मशीन के नतीजे से मिलान करके पूरे मतदान नतीजे को सही समझा जाएगा। आयोग के इसी नियम को अब चुनौती दे दी गई है जिसकी वजह से पचास प्रतिशत मतदान केन्द्रों में ईवीएम व वीवीपैट पर्चियों के मिलान करने की मांग 21 राजनैतिक दलों ने की है।
न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई करते हुए अगली तारीख पर आयोग के वरिष्ठ अफसर को भी उपस्थित रहने का आदेश दिया है। प्राकृतिक न्याय कहता है कि सांच को आंच नहीं होती। चुनाव आयोग को इस बात से ज्यादा सरोकार तब नहीं होना चाहिए जबकि इस व्यवस्था में किसी प्रकार की गड़बड़ी होने की आशंका हो मगर यहां मामला उल्टा है कि खुद सियासी पार्टियां कह रही हैं कि कम से कम आधे मतदान केन्द्रों पर पर्चियों की गिनती की जाए तो आयोग को इस पर ऐतराज क्यों होना चाहिए? इस तर्क मंे कोई दम नहीं है कि एेसा करने में बहुत समय लगेगा और नतीजे देर से आयेंगे। यह तर्क लोकतन्त्र के पूरी तरह पाक-साफ रहने के खिलाफ है।
सवाल यह है कि सबसे पहले मतदाता का विश्वास पूरी प्रक्रिया पर पूरी तरह होना जरूरी है। यह काम ऐसा दुश्वारी भरा भी नहीं है कि जिसे करने में बहुत ज्यादा कसरत करनी पड़े और सरकारी अमले को दिक्कतों का सामना करना पड़े। इससे ज्यादा दुश्वारी तो सरकारी कर्मचारियों को ईवीएम मशीनों की देखभाल करने में ही करनी पड़ती है। वर्तमान लोकसभा चुनाव भी 11 अप्रैल से शुरू होकर 19 मई तक चलेंगे और मतगणना 23 मई को होगी तो महीनेभर से ज्यादा इन मशीनों की देखभाल में ही सरकारी अमला लगा रहेगा।
अतः नतीजों में देरी का क्या मतलब निकाला जा सकता है। मतलब तो आम मतदाता के विश्वास का है जिसे कायम रखना चुनाव आयोग का प्राथमिक कर्तव्य है। इस नजरिये से राजनैतिक दलों ने फिर भी रियायत बरती है। सभी वीवीपैट पर्चियों की गिनती करके ईवीएम मशीनों से मिलान की मांग नहीं की है। सबसे ज्यादा जरूरी है कि मतदाता को यह पूरी तरह सन्तोष होना चाहिए कि उसके डाले गये वोट में बीच में किसी भी ताकत ने किसी प्रकार की गड़बड़ी करने की कोशिश नहीं की है।