भारतीय संविधान के आमुख पर लिखित जब ‘हम भारत के लोग’ इसे अपनाने की कसम खाते हैं तो ऐलान करते हैं कि प्रत्येक भारतीय ‘नागरिक’ इसकी पाबन्दी कबूल करता है यह संविधान ही हमें भारत का नागरिक होने की शर्तें बताता है जिनका खुलासा 1955 में बने नागरिकता कानून में बाखूबी किया गया है। मोटे तौर पर भारतीय संघ की भौगोलिक सीमाओं में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति भारत का ‘निवासी’ कहलाने का अधिकारी होगा परन्तु वह ‘नागरिक’ तभी कहलायेगा जब उसके पुरखों की जमीन भी भारत में ही हो। मगर 1935 तक भारत की सीमाएं म्यांमार से लेकर पाकिस्तान और बंगलादेश तक फैली हुई थीं।
अतः तब तक इन सीमाओं में बसने वाले सभी लोग भारतीय ही थे। 1935 में ब्रिटिश हुकूमत ने म्यांमार (बर्मा) को अलग देश घोषित कर दिया। अतः इसकी भौगोलिक सीमाओं में रहने वाले लोग ‘बर्मी’ कहलाने लगे इसके बाद 1947 में पाकिस्तान बना जिसके दो हिस्से पश्चिमी व पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाले लोग पाकिस्तानी हो गये और 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के बंगलादेश में तब्दील हो जाने के बाद यहां रहने वाले लोग बंगलादेशी कहलाने लगे। प्रत्येक बंटवारे के समय पूरे भारतीय भू-भाग में रहने वाले लोगों को यह स्वतन्त्रता दी गई थी कि वे जिस देश की भी चाहें नागरिकता ले सकते हैं। चूंकि 1947 में भारत का बंटवारा भौगोलिक परिसीमाओं को गैर प्राकृतिक तौर पर बांट कर इस तरह हुआ था कि एक ही ‘जातीय व क्षेत्रीय’ संस्कृति के लोग सिर्फ मजहब की वजह से दो देशों मे बंट गये थे। अतः नागरिकता का मुद्दा खौफनाक शक्ल अख्तियार नहीं कर सका।
1956 तक कश्मीर को छोड़ कर पाकिस्तान के साथ भारत के सम्बन्धों में मिठास कायम थी और दोनों देशों के नागरिक आसानी से एक-दूसरे के यहां कुछ कागजी औपचारिकताएं पूरी करके आ-जा भी सकते थे। तब तक इसी साल में पाकिस्तान का नया संविधान लागू हुआ और इस मुल्क में भारी राजनीतिक उथल-पुथल शुरू हो गई और 1958 के आते-आते यहां के फौजी जनरल अयूब ने सत्ता संभाल कर मार्शल ला लागू कर दिया और पाकिस्तानी अवाम को फौजी बूटों के तले रहने को मजबूर कर दिया। भारत और पाकिस्तान के सम्बन्ध यहीं से बदसूरत होने शुरू हुए। इसके बावजूद उस समय के प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू के हुकूमत में रहते हुए पाकिस्तान की कभी हिम्मत नहीं हुई कि वह भारत की तरफ टेढी नजर करके देखे।
मगर 1962 में चीन से युद्ध हार जाने के बाद जनरल अयूब ने चीन की खुशामद करनी शुरू कर दी और 1947 में हड़पे गये कश्मीर का एक बड़ा भाग 1963 में चीन को सौगात में देकर अपने मुल्क की हदबन्दी की नई तहरीर लिख तक डाली। इसके बावजूद पं. नेहरू ने जम्मू-कश्मीर के नेता शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा करके पाकिस्तान भेजा और सन्देशा भिजवाया कि जनरल अयूब भारत आकर पं. नेहरू से मुलाकात करें और कश्मीर समस्या का हल खोजें। जून महीने में जनरल अयूब के नई दिल्ली आने की तैयारी लगभग हो चुकी थी मगर 27 मई, 1964 को पं. नेहरू की मृत्यु हो गई। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि जब इस दिन पं. नेहरू का स्वर्गवास हुआ तो इसी दिन शेख अब्दुल्ला ‘गुलाम कश्मीर’ के मुजफ्फराबाद में एक बहुत बड़ी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे।
इसी सभा के दौरान उन्हें पं. नेहरू की मृत्यु की खबर मिली। शेख इस जनसभा में कश्मीर समस्या का फार्मूला भी बताने वाले थे। परन्तु विधाता को कुछ और ही मंजूर था। इसके बाद प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर बैठे लाल बहादुर शास्त्री को कमजोर समझने की गलती करके जनरल अयूब की नजरों में खोट उतर आया और उसने भारत के कश्मीर के इलाकों में सैनिक चढ़ाई कर दी जिसका जवाब भारतीय फौजों ने इस तरह दिया कि उन्होंने लाहौर के करीब जाकर वहां नाश्ता पानी किया। पाकिस्तान ने यह युद्ध अमेरिका से मिले जंगी साजो-सामान के बूते पर किया था। पाकिस्तान बुरी तरह हारा और स्व. लाल बहादुर शास्त्री ने ईंट का जवाब पत्थर से देते हुए ऐलान किया कश्मीर पर बुरी नजर डालने वाले का हश्र भी बुरा होगा। इसके बाद से पाकिस्तान भारत के लिए दुश्मन देश जैसा हो गया जिसकी हद 1971 में पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बना कर स्व इन्दिरा गांधी ने तय कर डाली . मगर बांग्लादेश युद्ध के दौरान लाखों की संख्या में लोग सीमा के पार से भारत में आये. जाहिर है कि ये सभी बंगाली ही थे.
अतः बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के महानायक शेख मुजीबुर्रहमान और इन्दिरा गांधी के बीच 16 दिसम्बर 1971 को बाकायदा पूर्वी पाकिस्तान के अन्तरराष्ट्रीय मानचित्र में ‘बांग्लादेश’चित्रित हो जाने के बाद 19 मार्च 1972 को नागरिकों को लेकर ही समझौता हुआ कि मार्च 1971 तक भारत की सीमा में आने वाले नागरिकों को अपनी मनपसन्द राष्ट्रीय नागरिकता चुनने का अधिकार होगा यह समझौता ऐतिहासिक था क्योंकि इससे दुश्मनी के अंदाज रखने वाले पाकिस्तान को दो देशों मे तब्दील कर दिया गया था मार्च 1971 इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इसी महीने में पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने स्वयं को पाकिस्तान से अलग होकर एक नये देश बंगलादेश में परिवर्तित करने की घोषणा करते हुए एक ‘आरजी सरकार’ गठित की थी।
अतः भारत के असम राज्य में बंगलादेश से आये लोगों के लिए 1971 का मार्च महीना नागरिकता के लिए आधार वर्ष तय हुआ जिसे इस मुद्दे पर असम के आन्दोलनकारियों ने भी स्व. राजीव गांधी के साथ 1985 के ‘असम समझौते’ में स्वीकार किया और असम में एक ‘नागरिक रजिस्टर’ बनाने को मंजूरी दी। यही नागरिक रजिस्टर बनाने का काम असम राज्य में पिछले वर्ष हुआ जिसमें 19 लाख लोगों की नागरिकता को संदिग्ध पाया गया। दिक्कत तब आयी जब इन 19 लाख लोगों में से 14 लाख के लगभग हिन्दू व बांग्ला अथवा अन्य भाषा-भाषी निकले। अतः असम सरकार ने ही इस नागरिकता रजिस्टर को स्वीकार करने से मना कर दिया, परन्तु यह समस्या फिलहाल केवल असम तक ही सीमित है शेष भारत इससे लगभग अछूता ही माना जाता है।
पं. बंगाल के सीमा पर बसे कुछ इलाकों की हालत यह है कि भारतीय सीमा में रहने वाले लोगों के खेत वहां बहती नदियां हर बरसात के बाद अपना बहाव बदलते हुए एक-दूसरे की सीमाओं में खड़ा कर देती हैं परन्तु अवैध रूप से नागरिकों के प्रवेश का मामला भी ऐसी समस्या है जिसके तार राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े होते हैं परन्तु अवैध नागरिकों की पहचान के लिए हमें भारत के प्रत्येक नागरिक को कठघरे में खड़ा करने की जरूरत क्यों पड़े? जब आधार कार्ड से लेकर पैन कार्ड व राशनकार्ड, मतदाता कार्ड और बैंक खातों की पुस्तक नागरिकता के प्रमाण न मान कर केवल निवासी होने के प्रमाण माने जा रहे हैं तो सर्वोच्च न्यायालय को ही इस बारे में कोई ऐसा पैमाना तय करना पड़ेगा जिससे निवासी और नागरिक का भेद पूरी तरह स्पष्ट हो सके, लेकिन एक बात दीगर यह भी है कि अवैध नागरिकों की पहचान के लिए सरकार के पास अख्तियारों की कमी नहीं है इस बाबत बाकायदा कानून बने हुए हैं। हैरत तो तब होती है जब कोई व्यक्ति सेना की नौकरी भी कर आता है और तब भी उसे संदिग्ध नागरिक की श्रेणी में डाल दिया जाता है। इससे आम नागरिकों में भय का माहौल ही बनता है।