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हमारे पास पंख हैं!

तोक्यो ओलिम्पिक में भारतीय खिलाड़ियों ने अपना दमखम तो दिखाया ही अब पैरालिम्पिक खेलों में भी भारतीयों ने दिखा दिया कि विकलांगता के बावजूद वास्तविक जिन्दगी में वे महानायक हैं।

तोक्यो ओलिम्पिक में भारतीय खिलाड़ियों ने अपना दमखम तो दिखाया ही अब पैरालिम्पिक खेलों में भी भारतीयों ने दिखा दिया कि विकलांगता के बावजूद वास्तविक जिन्दगी में वे महानायक हैं। जब तोक्यो पैरालिम्पिक का उद्घाटन हुआ था उसका बहुचर्चित थीम सांग ‘वी हैव दी विंग्स’ यानि हमारे पास पंख हैं और हम उड़ान भरना जानते हैं, काफी प्रेरणादायक रहा। इन खेलों में दुनियाभर के ऐसे खिलाड़ी शामिल होते हैं जो किसी न किसी तरह दिव्यांग होते हैं, लेकिन उनमें हौसलों की उड़ान होती है।
तोक्यो पैरालिम्पिक में पदक वीरों ने देश का सिर्फ मान ही नहीं बढ़ाया बल्कि समूचे देश को एक सबक दिया है कि अपनी विवशताओं को कमजोरी नहीं बल्कि ताकत बनाएं। भाला फैंक खिलाड़ी सुमित अंतिल ने पुरुषों की एफ 64 स्पर्धा में कई विश्व रिकार्ड तोड़ते हुए स्वर्ण पदक जीत लिया। उन्होंने 68.55 मीटर दूर तक भाला फैंका जो एक नया विश्व रिकार्ड रहा। 2015 में मोटर बाइक दुर्घटना में बायां पैर घुटने के नीचे से गंवा देने के बावजूद उन्होंने अपने ही विश्व रिकार्ड को सुधारा।
जयपुर की रहने वाली अवनि लेखरा ने निशानेबाजी में ​िवश्व रिकार्ड की बराबरी कर स्वर्ण पदक हासिल किया है। अवनि पैरो​िलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं, साथ ही भारत का इन खेलों में निशानेबाजी प्रतियोगिता में भी पहला पदक है। वर्ष 2012 में महज 12 वर्ष की उम्र में अवनि एक दुर्घटना के चलते पैरा​लिसिस का शिकार हो गई थी तो चलने के ​िलए उसे व्हीलचेयर का सहारा लेना  पड़ गया था। अवनि ने हार नहीं मानी और आगे बढ़ने की ठान ली। दुर्घटना के महज तीन वर्ष बाद ही अव​नि ने शूटिंग को अपनी जिन्दगी बनाया और महज पांच साल के भीतर गोल्डन गर्ल तमगा हासिल कर​​लिया। कोरोना के चलते भी उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उस दौरान उसकी प्रेक्टिस पर भी काफी असर पड़ा। उसे घर पर ही टारगेट सेट पर प्रेक्टिस करनी पड़ी। टोक्यो ओलिम्पिक में अगर जैवलिन थ्रो भारत के नीरज चोपड़ा के नाम रहा तो तोक्यो पैरालिम्पिक में देवेन्द्र झाझरिया ने इतिहास रच दिया। उन्होंने भाला फैंक स्पर्धा में रजत पदक जीता। आठ साल की उम्र में बिजली के झटके के कारण उनका बायां हाथ काटना पड़ा था। उनके अलावा सुन्दर सिंह गुर्जर ने भी कमाल दिखाते हुए कांस्य पदक जीत लिया। सुन्दर सिंह गुर्जर ने 2015 में एक दुर्घटना में अपना हाथ गंवा दिया था। वह 2017 आैर 2018 विश्व पैैरा एथलेटिक्स में स्वर्ण पदक जीत चुके हैं। 
पुरुषों की एफ 56 डिस्कस थ्रो में भारत के योगेश कथूनिया ने रजत पदक जीता। छोटी सी उम्र में उसे लकवा मार गया था। ​​बिना ​िकसी कोच के अभ्यास किया और रजत जीत लिया। टैनिस में रजत पदक जीतने वाले गुजरात के वडनगर की भाविना पटेल तो 12 माह की उम्र में ही पो​िलयो का शिकार हो गई थी। बाद में नियमित उपचार न होने की वजह से उसकी आंखों की रोशनी कम होती चली गई। माता-पिता ने उसका दा​िखला अहमदाबाद में ब्लाइंड पीपल एसोसिएशन में करा ​िदया। जहां उसने न केवल कम्प्यूटर कोर्स किया, बल्कि टेबल टेनिस खेलना शुरू किया। तोक्यो के लिए क्वालीफाई कर उन्होंने इतिहास रच दिया और रजत पदक जीत लिया। 
हरियाणा के रेवाड़ी निवासी टेकचंद दुर्घटना और लकवे का शिकार होकर दस साल तक अधर में रहे। उसने शाटपुट में एफ 55 में अपने करियर का बेहतरीन प्रदर्शन कर 9 मीटर से अधिक दूरी तय की। भले ही वह पदक नहीं जीत पाए लेकिन इस हार में सीख कर भी वह आगे बढ़ने को तैयार हैं।
इन सभी ने अपनी अक्षमताओं को क्षमताओं में बदल दिया। इन सभी के जज्बे को सलाम है। इन सभी ने कवि दुष्यंत की उन पंक्तियों को सच कर ​िदखाया। 
‘‘कौन कहता है कि आसमां में 
सुराख नहीं हो सकता
कोई पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’’
आमतौर पर दिव्यांगों को समाज नजरअंदाज कर देता है। उन्हें समाज में उपेक्षित रहना पड़ता है और उनके ​िलए हालात बहुत चुनौतीपूर्ण होते हैं। लोगों का रवैया भी इनके साथ अच्छा नहीं होता। उनके ​िलए शिक्षा और रोजगार भी बड़ी चुनौती है। ​दिव्यांगों के प्रति समाज काफी उदासीन है, जबकि इनमें देश का नाम रोशन करने की पूरी क्षमता है। देश में करीब 45 फीसदी दिव्यांग अशिक्षित हैं। पैरालिम्पिक में पदक जीतने वाले ​खिलाड़ियों की उपलब्धि किसी से कम नहीं है। यह सब उन लोगों के आदर्श बन सकते हैं जो किसी हादसे का ​िशकार होकर खुद को अक्षम मानने लग जाते हैं। इन सभी ​िखलाड़ियों में टूट कर ​िफर से उठ खड़े होने की शक्ति है। आम दिव्यांगों के लिए भी यह प्रेरणा का स्रोत है। आज पूरे राष्ट्र को इन दिव्यांग खिलाडि़यों पर गर्व है। अगर समाज दिव्यांगों के प्रति अपना व्यवहार बदल ले आैर सरकार उन्हें प्रोत्साहित करे तो वह देश में ऐसा वातावरण सृजित होगा कि हर दिव्यांग हौसलों की उड़ान भरने लगेगा।

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