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गणतन्त्र पर क्या हालचाल हैं ?

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भारत आज 70वां गणतन्त्र दिवस मना रहा है। इस दौरान वह पीढ़ी बूढ़ी हो चली है जिसने भारत की आजादी के समय आंखें खोली थीं, अंग्रेजों द्वारा लुटे-पिटे छोड़े गये भारत का हमने वह शृंगार किया कि पूरी दुनिया इसकी खूबसूरती की दीवानी हो गई बावजूद इसके कि अंग्रेज पाकिस्तान का निर्माण करके इसकी छाती में लहू की धार छोड़कर चले गये थे। मगर पं. जवाहर लाल नेहरू जैसे दूरदृष्टा राजनेता ने भारत की इस लहू में डूबी हुई जमीन की मिट्टी से वह जादू किया कि चारों तरफ गंगा-जमुनी संस्कृति की धार बहा कर शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और कृषि से लेकर विज्ञान तक के इबादत खानों में आम हिन्दोस्तानी ने अपने विकास की इबारत लिखनी शुरू कर दी और हम देखते-देखते ही ऐसे गणतन्त्र हो गये जिसमें गरीबी को चौतरफा सिमटाया जाने लगा और गरीब के बच्चों के लिए सत्ता के शीर्षस्थ स्थान पर जाने के दरवाजे खुलने लगे। यही वजह थी कि पं. नेहरू की 1964 में मृत्यु हो जाने पर एक ऐसे गरीब व्यक्ति की कामराज नाडार की सदारत में कांग्रेस पार्टी ने दूसरे गरीब आदमी लाल बहादुर शास्त्री के हाथ में मुल्क की बागडोर दे दी। वास्तव में यह भारत के संविधान और गणतन्त्र की ताकत थी जिसे हमने 26 जनवरी 1950 में अपना कर घोषणा की थी कि भारत ‘लाल-ओ-जवाहर’ की धरती है। मगर हमने यह कमाल भारत की विविधता से उपजी एकता के बलबूते पर ही किया और हर कदम पर संविधान की पाबन्दी के साथ किया। यह काम हमने इस तरह किया कि दुनिया के वे देश हमसे प्रेरणा लेने लगे जो तब तक गुलामी की जंजीरों में ही जकड़े हुए थे और साम्राज्यवाद से छुटकारा पाना चाहते थे।

भारत ने आगे बढ़कर गुट निरपेक्षता आन्दोलन की तहरीक को प. नेहरू की कयादत में इस तरह शुरू किया कि एशिया, अफ्रीका से लेकर यूरोप तक के कमजोर देश इसके साथ चलने लगे और कारवां आगे बढ़ने लगा लेकिन इस कारवां को सबसे बड़ी ताकत भारत के लोगों से ही मिल रही थी जो विभिन्न धर्मों के मानने वाले थे और विभिन्न संस्कृतियों के छाते के नीचे रह कर भारत को मजबूत देश बना रहे थे। आज सत्तर साल बाद सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि हमने उस संविधान की प्रतिष्ठा के अनुरूप कितना आगे का सफर तय किया है जिससे भारत के लोगों को मजबूती मिली है और भारत शक्तिशाली देश के रूप में प्रतिष्ठापित हुआ है। बेशक आर्थिक क्षेत्र में हम विकास वृद्धि की दर का हवाला देकर लोगों के कष्ट दूर करने की शेखियां बघारते रहते हैं मगर असली सवाल यह है कि औसत भारतीय की हालत में कितना परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन हमें चौतरफा दिखना चाहिए और वर्ग व सम्प्रदाय के घेरे को तोड़ते हुए भौतिक से वैचारिक स्तर दिखना चाहिए। यह गजब का विरोधाभास है कि भारत में अमीरों की आमदनी में इस तरह वृद्धि हो रही है कि देश की 73 प्रतिशत सम्पत्ति पर केवल एक प्रतिशत लोगों का ही कब्जा है।

भारत का संविधान इस परिस्थिति को बनने से रोकता है और कहता है कि समाज में वैज्ञानिक नजरिये को प्रोत्साहित करके सरकारों को लोगों को कुरीतियों और रूढि़वादि परंपराओं को खत्म करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। मगर 21वीं सदी में हम माहौल को बिल्कुल विपरीत पाते हैं और आश्चर्यजनक रूप से राजनीतिज्ञों को दकियानूसी रिवाजों को खुले आम संरक्षण देते पाते हैं। यही वजह है कि जातिवाद का जहर हमारे समाज को इस कदर खोखला बना रहा है कि हम इंसानियत भूल कर आदमी के साथ क्रूरतम व्यवहार करने से भी पहेज नहीं करते। इस सन्दर्भ में जो नया नागरिकता विधेयक लाया गया है वह संविधान की आत्मा के पूरी तरह विरुद्ध है क्योंकि इसमंे आदमी को खुले तौर पर हिन्दू-मुसलमान में बांट दिया गया है।

संविधान हर व्यक्ति को अपने धर्म के अनुसार जीवन जीने की छूट देता है मगर इंसान को हिन्दू-मुसलमान में नहीं बांटता। तर्क दिया जा सकता है कि मुसलमानों के लिए प्रथक नागरिक आचार संहिता क्यों है? यह मामला पूरी तरह धर्म के उस सीमित दायरे में आता है जिसके तहत कोई भी व्यक्ति अपने उन निजी मामले को निपटाता है जिनका सम्बन्ध सामाजिक कानून-व्यवस्था या पब्लिक आर्डर से नहीं है क्योंकि इस दायरे में संविधान हर धर्म के नागरिक को एक बराबरी से तोलता है। मसलन फौजदारी कानून सभी नागरिकों पर एक समान रूप से लागू होता है। मगर सत्तर साल के दौरान हमने जो सबसे बड़ा पाप किया है वह हर अमीर-गरीब को एक जैसी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध न कराकर किया है क्योंकि इन दोनों क्षेत्रों में सार्वजनिक निवेश ऐसा दीर्घकालिक निवेश होता है जिससे पूरा देश न केवल सामाजिक बल्कि रक्षा के क्षेत्र तक में मजबूत होता है। हमने ये दोनों ही क्षेत्र निजी धन्नासेठों की लूट के लिए छोड़ दिये हैं जिनका मुख्य लक्ष्य मुनाफा कमाना होता है। हद यह हो गई है कि इन सत्तर सालों में राजनीति भी तिजारत में बदलती गई है।

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