जम्मू-कश्मीर राज्य के बारे में पिछले लगभग 30 साल से केन्द्र की विविध सरकारों की जो नीति चली आ रही है क्या उसमें कहीं कोई एेसी मूलभूत खामी है जो इस राज्य के आम नागरिकों के मन में भारत की राष्ट्रीय धारा से अलग पहचान बनाने को उकसा रही है अथवा इस सूबे में एेसे तत्व प्रभावी हो चुके हैं जो राज्य की जनता में अलगाववादी विचारों को भरने में कामयाब हो रहे हैं? दोनों ही मामलों में राज्य के आम नागरिकों को प्रत्यक्षतः दोषी करार नहीं दिया जा सकता क्योंकि उनका भारतीय संविधान के तहत प्रतिष्ठापित शासन व्यवस्था में अक्टूबर 1947 से ही पक्का यकीन रहा है, जब इस रियासत का भारतीय संघ में विधिवत विलय हुआ था परन्तु कालान्तर में सूबे के राजकीय विलय पत्र की शर्तों पर ही सवालिया निशान लगाने से जिस प्रकार के तत्वों ने इस राज्य में सिर उठाना शुरू किया उसने अलगाववाद को राजनैतिक अवसर मंे बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी और इस सूबे को राष्ट्रीय मुख्यधारा मंे लाने के प्रयासों में अवरोध खड़े करने शुरू किये। यह एेतिहासिक तथ्य है कि जब अक्टूबर 1947 में कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने अपनी पूरी रियासत का विलय भारतीय संघ में किया था तो भारतीय जनसंघ के संस्थापक स्व. डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी पं. नेहरू की सरकार मंे उद्योग मन्त्री थे और विलय शर्तों पर मन्त्रिमंडल का सदस्य होने के नाते उनकी भी पूर्ण सहमति थी। यहां तक कि जब पं. नेहरू कश्मीर के सवाल को लेकर राष्ट्रसंघ में गये तब भी डा. मुखर्जी नेहरू सरकार में शामिल थे मगर उन्होंने कश्मीर के मुद्दे पर नेहरू मन्त्रिमंडल से त्यागपत्र देना उचित नहीं समझा और सरकार तब छोड़ी जब पं. नेहरू ने दिसम्बर 1950 में नई दिल्ली में ही पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. लियाकत अली खां के साथ दोनों देशों के अल्पसंख्यकों के हितों की खातिर समझौता किया। इस समझौते का नेहरू सरकार में गृहमन्त्री सरदार पटेल ने जबर्दस्त समर्थन किया था और इसके पक्ष में राजनैतिक मोर्चे पर माहौल तैयार करने की मुिहम जैसी छेड़ी थी क्योंकि तब लियाकत अली खां लगभग एक सप्ताह से भी ज्यादा नई दिल्ली में रुके थे। यह समझौता होने के बाद डा. मुखर्जी ने 1951 के शुरू में नेहरू सरकार से इस्तीफा दे दिया। उस समय कश्मीर में स्व. पंडित प्रेमनाथ डोगरा सत्ता पर काबिज स्व. शेख अब्दुल्ला की सरकार के खिलाफ अपनी पार्टी ‘जम्मू प्रजा परिषद’ के झंडे के नीचे आन्दोलन चला रहे थे।
उनके साथ स्व. बलराज मधोक भी थे। पं. प्रेमनाथ डोगरा का सीधा राजनैतिक टकराव शेख अब्दुल्ला की नेशनल कान्फ्रेस के साथ था। शेख अब्दुल्ला जहां 1930 के बाद से रियासत में महाराजा के शासन के खिलाफ लोकतन्त्र की स्थापना हेतु संघर्ष कर रहे थे वहीं पंडित जी ने यह काम भारत को स्वतन्त्रता मिलने के वर्ष से शुरू किया और सूबे के विलय की विशेष शर्तों खासतौर पर अनुच्छेद 370 का विरोध करना शुरू किया। उनके इस आन्दोलन को 1951 के शुरू तक विशेष समर्थन न मिलने पर उन्होंने डा. मुखर्जी को इसकी अगुवाई करने की दावत दी और डा. मुखर्जी इस आन्दोलन में कूद पड़े जिससे पूरे देश में ‘एक प्रधान, एक निशान और एक संविधान’ के भावुक विचार की स्वीकार्यता को बल मिलता चला गया और शेख अब्दुल्ला द्वारा राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त अधिकारों के इस्तेमाल को राष्ट्र विरोधी गतिविधियों की संज्ञा देने की अवधारणा प्रबल होती चली गई। इस अवधारणा का असर पूरे भारत में इस प्रकार हुआ कि 1953 में स्वयं पं. नेहरू को शेख अब्दुल्ला की सरकार को इस आधार पर बर्खास्त करना पड़ा कि उन्होंने अपने मन्त्रिमंडल का विश्वास खो दिया है। यह इतिहास का अंश लिखने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि हमें उस अनुच्छेद 370 को लेकर शुरू हुई राजनीति के बारे में तथ्यपरक जानकारी हो क्योंकि अक्टूबर 1947 में जब महाराजा हरि सिंह ने अपनी पूरी रियासत का भारतीय संघ में विलय किया था तो उस पर खुद पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के दस्तखत भी कराये थे। इसकी वजह यह थी कि शेख साहब तब अपने राज्य के लोगों के सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता थे और महाराजा हरि सिंह ने स्वयं यह शर्त रखी थी कि विलय के बाद उनकी रियासत के प्रधानमन्त्री शेख अब्दुल्ला ही होने चाहिएं। अतः अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर राज्य के राष्ट्रीय समन्वय की राह में रोड़ा मानना इस राज्य की नैसर्गिक सुन्दरता और इसकी विशिष्ट संस्कृति के संरक्षण के मूल विचार के विरुद्ध ही माना जायेगा। यह भी तथ्य है कि यहां के लोगों ने कभी भी पाकिस्तान को जायज मुल्क की हैसियत से नहीं देखा जबकि पाकिस्तान लगातार मजहब का हवाला देकर कश्मीरियों को बरगलाने की साजिशें रचता रहा।
इसका सबूत भी खुद शेख अब्दुल्ला थे। जब चीन युद्ध के बाद 1963 मंे पं. नेहरू ने उन्हें नजरबन्दी से रिहा करके पाकिस्तान भेजा तो उनका इस्लामाबाद में स्वागत वहां के फौजी हुक्मरान जनरल अयूब ने राजकीय अंदाज में किया और उन पर डोरे डालने मंे कोई कसर नहीं छोड़ी मगर जब शेख अब्दुल्ला भारत वापस चलने के लिए विमान में बैठे तो जनरल अयूब ने उन्हें ‘नेहरू का गुर्गा’ कहकर विदा किया लेकिन इसी कश्मीर में आजकल क्या कजा बरप रही है कि जिस हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी को भारत की फौजों ने आतंकवादी बताकर हलाक किया उसी की बरसी मनाने की हिमाकत लोग सरआम कर रहे हैं और भारतीय फौज के काम में दखलन्दाजी करने पर लगातार इस तरह आमादा हो रहे हैं कि वे उस पर पत्थर तक मारते हैं। आखिरकार कौन सी वह ताकत है और वजह है जो यहां के नागरिकों को भारत के खिलाफ भड़का रही है। इसका उत्तर हमें बहुत ठंडे दिमाग से और तार्किक बुद्धि का इस्तेमाल करके ढूंढना होगा। आखिरकार हमने नागालैंड जैसी अलगाववादी ताकतों पर भी काबू पाने मंे सफलता प्राप्त की है। इस इलाके में तो आजादी से पहले अग्रेजों के शासनकाल से ही विद्रोही गतिविधियां जारी थीं। हमें यह भी सोचना होगा कि किसी भी राज्य के भीतर पुलिस और सेना की भूमिका में क्या अन्तर रखना होता है। नागरिक समस्याओं का सैनिक हल ढूंढ़ने की वकालत करने वाले लोग भूल जाते हैं कि राष्ट्रीय समन्वय की मूल शर्त लोगों में राष्ट्रीय एकता की भावना भरना ही होती है। सेना को जो काम दिया जायेगा उसे वह अपने अनुशासित नियमों के तहत ही पूरा करेगी। अतः बुरहान वानी की बरसी मनाने वाले लोगों ने जब सेना के जवानों पर पत्थर मारने शुरू किये तो उन्हें अपने काम में दखल देने वालों को रोकना ही था और उसने फायरिंग करना उचित समझा जिसमंे एक 16 वर्षीय नवयुवती के साथ दो अन्य व्यक्तियों की मौत हो गई मगर विरोधाभास यह है कि सेना की इस फायरिंग की जांच पुलिस करेगी? एेसा क्यों है कि हम अपनी सेना की कार्रवाई को जांच के घेरे में डालकर उसकी भूमिका को विवादास्पद बनाते हैं? यह राजनीति का विषय किसी भी सूरत मंे नहीं हो सकता क्योंकि सेना की भूमिका राष्ट्रीय सुरक्षा और सम्मान को सर्वोपरि रखने की होती है और उसका कोई भी कार्य राजनीति से परे होता है। आवश्यकता तो अन्त मंे उसी राजनीतिक विमर्श की पड़ेगी जिससे कश्मीर मंे न कोई दूसरा बुरहान वानी पैदा हो और न यहां के लोग सेना के काम में बाधा डालें। सवाल वह माहौल पैदा करने का है जब हर कश्मीरी जयहिन्द कहकर खुद को सेना के काम में हाथ बंटाने वाला सिपाही बने।