यह लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जब देश में कहीं महत्वपूर्ण चुनाव होते हैं तो राजनीति के सुर अचानक जमीनी हकीकत से बदल कर आसमानी ख्वाबों में तैरने लगते हैं और ऐसे-ऐसे मुद्दे हवा में घूमने लगते हैं जिनका जिक्र तक करना आम जनता को माकूल नहीं लगता। संसदीय चुनाव प्रणाली में लोग सरकारों का गठन हवाई सैर के लिए नहीं करते हैं बल्कि जमीन पर अपनी मुसीबतों को कम करने के लिए करते हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के लिए आगामी 21 अक्टूबर को मतदान होगा और 24 अक्टूबर को नतीजे भी सुना दिये जायेंगे मगर किसी भी राज्य में हो रहे चुनाव प्रचार में यह सुनने को नहीं मिल रहा है कि लोगों के वोट से बनी अगली सरकार की वे नीतियां क्यों होंगी जिनसे उनकी तकलीफें कम होंगी।
महाराष्ट्र भारत का ऐसा महत्वपूर्ण राज्य है जिसकी आर्थिक ताकत इंजिन बन कर भारत की अर्थ व्यवस्था खींचती रही है परन्तु पिछले दशक से इसमें लगातार गिरावट दर्ज हो रही है और राज्य सरकार के विभिन्न विभागों में भ्रष्टाचार का बाजार गर्म होने की खबरें मिलती रही हैं। राज्य में बेरोजगार युवकों की संख्या में वृद्धि होना राष्ट्रीय समस्या हो सकती है परन्तु रोजगार पाने के लिए जिस तरह भ्रष्टाचार भरी तक्नीकें इस राज्य में ईजाद हुई हैं उनसे प्रतिभाशाली आर्थिक रूप से कमजोर युवा वर्ग का भविष्य अंधकारमय लगता है। भारत में जिस त्रिस्तरीय प्रशासन प्रणाली के तहत जन कल्याणकारी सरकारों का गठन होता है उनका ध्येय जन समान्य के दैनिक जीवन से लेकर भौतिक विकास की गति को सुचारू बनाने का होता है जिसमें आवश्यक खाद्य सामग्री से लेकर जीवनोपयोगी विभिन्न वस्तुएं तथा जीवीकोपार्जन के लिए जरूरी शिक्षा-दीक्षा तक शामिल होती है।
पांच वर्ष बाद जब किसी राज्य सरकार के गठन के लिए चुनाव होते हैं तो इस बात का जायजा लेना प्रत्येक मतदाता का फर्ज बनता है कि राज्य में कानून-व्यवस्था की हालत कैसी रही है और कैबिज सरकार के कामकाज को इस पैमाने पर किस खाने में रखा जा सकता है। हमारे संविधान में कानून-व्यवस्था ऐसा विषय है जो राज्य सरकार का कई मायनों में विशेष से भी ऊपर एकाधिकार कहा जा सकता है। इसके साथ ही कृषि के क्षेत्र में राज्य सरकार के कामकाज का जायजा लिया जाना बहुत आवश्यक होता है क्योंकि यह भी राज्यों का विशेषाधिकार होता है।
अतः राज्यों के चुनावों में इन दोनों क्षेत्रों में ही बेहतर काम करने के लिए विभिन्न राजनैतिक दलों के घोषणापत्र आने चाहिए और उनका बाकायदा विश्लेषण भी किया जाना चाहिए परन्तु अजीब दौर शुरू हुआ है पिछले कुछ दशक से भारत की राजनीति में कि कुछ क्षेत्रीय दल चुनाव घोषणापत्र को ढकोसला बताते हैं और केवल जातिगत समूबन्दी के आधार पर चुनाव में हार-जीत तय करना चाहते हैं। इस प्रकार की जातिगत राजनीति ने भारतीय समाज को कलहवादी राजनीतिज्ञों के चंगुल में धकेलने का काम किया है। महाराष्ट्र ऐसी राजनीति का प्रारंभ से ही तिरस्तकार करता रहा हालांकि यहां बाबा साहेब अम्बेडकर की रिपब्लिकन पार्टी का भी एक जमाने तक अच्छा प्रभाव रहा परन्तु रिपब्लिकन पार्टी के किसी भी नेता ने कभी भी जातिगत आधार पर घृणा या द्वेष फैलाने का कम नहीं बल्कि इसके विपरीत मानवीय आधार पर भारत के संविधान में लिखित एक समान मानवीय अधिकार प्राप्त करने के लिए पुरजोर आवाज उठाई।
महाराष्ट्र की विशेषता यह भी है कि यह राज्य सामाजिक न्याय पाने की कर्मभूमि भी बना और राष्ट्र के लिए सर्वस्व अर्पण करने वाले विचारों की पुण्य भूमि भी बना। इसके साथ ही स्वतंत्र भारत में औद्योगिक क्रान्ति का अग्रदूत भी यही राज्य बना। सवाल उठना लाजिमी है कि महाराष्ट्र की यह चमक अब कहां लुप्त होती जा रही है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है? दूसरी तरफ इस भूमि से मराठी व गैर मराठी की तर्कहीन आवाजें सुनाई देने लगती हैं। चुनावों की सफलता का पैमाना अक्सर मतदान का कम या ज्यादा होना माना जाता है। गणितीय दृष्टि से यह पूरी तरह उचित भी है परन्तु असली चुनावी सफलता मतदान के लिए खड़े किये गये एजेंडे पर निर्भर करती है।
लोकतंत्र का मूल यही है और इसी के ऊपर सारी व्यवस्था टिकी हुई है। यह बेसबब नहीं था कि महात्मा गांधी ने आजादी के संघर्ष के दौरान अपने पत्र में बार- बार लिख कर यह चेतावनी दी थी कि लोकतंत्र में उसी को सरकार कहा जा सकता है जो सामान्य नागरिकों की खाद्यान्न आपूर्ति के साथ स्वास्थ्य व शिक्षा के क्षेत्र की जरूरतों को भी पूरा करे। जो सरकार यह नहीं कर सकती उसे सिर्फ अराजकतावादियों का जमघट ही कहा जायेगा। महाराष्ट्र के सन्दर्भ में यह उद्धरण इसलिए सामयिक है क्योंकि यहां भाजपा व शिवसेना आपस में मिल कर साझा सरकार चला भी रही हैं और लगातार लड़ भी रही हैं।
सत्ता उन्हें एक खूंटे से बांधे हुए तो है मगर दोनों एक दूसरे के चक्करों पर भी गहरी नजर रखे हुई हैं। मगर अफसोस यह भी कम नहीं है कि राज्य में विपक्ष पूरी तरह हथियार छोड़ कर खड़ा हुआ सा लगता है और वह कोई वैकल्पिक विमर्श खड़ा ही नहीं कर पा रहा है। इससे भी ज्यादा बुरी हालत हरियाणा में है, विपक्षी पार्टी कांग्रेस की है जिसने मनोहर लाल खट्टर सरकार से पिछले पांच साल का हिसाब-किताब मांगने तक की हिम्मत नहीं दिखाई। यह स्थिति बताती है कि राजनैतिक विचारों के अकालग्रस्त दौर में हम समय बिता रहे हैं।