आज दो अक्तूबर है जिसे पूरा देश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्म दिवस के रूप में मनाता है। यह हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है कि विश्व की पिछली सदी के सबसे बड़े ‘महानायक’ के सिद्धान्तों से उसका देश ही विमुख होकर अपनी सुविधा के हिसाब से उसके सिद्धांतों की व्याख्या कर रहा है और उसके मूल विचारों की खिल्ली तक उड़ा रहा है। गांधी ने जिस ‘राम राज्य’ की परिकल्पना की थी उसे आज के कुछ नौसिखिये राजनीतज्ञों ने धार्मिक मानकों में कैद कर डाला और उनके ‘हे राम’ को तो मूर्ति पूजा से सम्बद्ध कर डाला। जबकि वास्तव में गांधी का राम राज्य दरिद्र से दरिद्र और पिछड़े से पिछड़े व्यक्ति को शासन द्वारा न्याय दिलाने की अवधारणा थी।
उनके हे राम निराकार ईश्वर की सत्ता की ऐसी उपस्थिति थे जिसका किसी धर्म या मजहब से कोई लेना–देना नहीं था। वह गुरुनानक देव जी महाराज के राम भी थे और महान संत कबीर के राम भी थे और गोस्वामी तुलसीदास के साकार राम भी थे परन्तु किसी भी सूरत में पाखंडवादियों के राम नहीं थे क्योंिक राम की सत्ता किसी उपासना पद्धति की मोहताज नहीं थी। गांधी ने जब कहा कि दरिद्र नारायण की सेवा सबसे बड़ी सेवा है तो पोंगापंथियों को लगा कि महात्मा होकर गांधी हिन्दू धर्म का उपहास कर रहे हैं। महात्मा ने जब सफाई कर्मचारियों की बस्ती में अपना बसेरा बसाया और बकरी का दूध पिया तो पाखंडवादी पंडिताऊ समाज के लोगों ने फतवा दिया कि गांधी धर्म भ्रष्ट करने की राह पर चल रहे हैं। गांधी ने सारी आलोचना को बहुत सहजता से लेते हुए कहा कि ईश्वर की सत्ता मानवीयता का वह स्वरूप है जिसमें सत्य सर्वोपरि रहता है और अहिंसा जिसे प्रतिष्ठापित करती है अत: जहां सत्य है वहीं अल्लाह है और जहां अहिंसा है वहीं भगवान है।
मगर गांधी वैज्ञानिक दृष्टि से ओत-प्रोत व्यक्ति थे और ऐसे राजनेता थे जिनके लिए सरकार का अर्थ ‘सेवामंडल’ से अधिक नहीं था। उन्होंने जिस स्वतन्त्र भारत की परिकल्पना की थी उसमें सरकार ‘राज्याभिषेक’ से नहीं बल्कि ‘लोकाभिषेक’ से परिचालित होनी चाहिए थी जिसमें गरीब से गरीब व्यक्ति को शासन के शीर्षस्थल तक पहुंचने में किसी भी प्रकार की कठिनाई न हो मगर यह कार्य किसी भी प्रकार के लोभ या व्यापारिक मदद के बिना ही होना चाहिए। इसका अर्थ यही था कि पूंजीपतियों को सरकार चुनने की इस प्रणाली से दूर रखा जाना चाहिए और उनका लेशमात्र भी प्रभाव इस प्रक्रिया पर नहीं पडऩा चाहिए। महात्मा ने इसके लिए अपना जो ‘ट्रस्टीशिप’ का सिद्धांत दिया वह बाजारवादी अर्थव्यवस्था को एक सिरे से नकार कर ऐसी समावेशी समाजवादी व्यवस्था की वकालत करता है जिसमें राष्ट्रीय सम्पत्ति का बंटवारा बहुत ही न्यायिक तरीके से स्वत: स्फूर्त भाव से हो सके।
गांधी ने सिद्धान्त दिया कि अमीर से अमीर व्यक्ति को अपनी अधिकतम जरूरतों की सीमा निर्धारित कर लेनी चाहिए। गांधी का यह ‘क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद’ था। इसके साथ ही गांधी ने कहा कि सार्वजनिक जीवन में आने वाले व्यक्ति को यह सोच कर ही राजनीति में प्रवेश करना चाहिए कि उसका निजी जीवन कुछ नहीं रहेगा क्योंिक राजनीति में निजी जीवन जैसे नाम की कोई चीज नहीं होती है। यह राजनीति को स्वच्छ बनाये रखने का गांधी का भारतीय फार्मूला था जिससे राजनीति में केवल वे व्यक्ति ही आएं जिनका निजी जीवन किसी भी प्रकार के लांछन से दूर हो और उनकी सम्पत्ति का ब्यौरा भी अधिकतम सीमा से अधिक न हो परन्तु गांधी ने न्यूनतम सीमा की बात नहीं कही क्योंकि यह सीमा सकल राष्ट्रीय आय के सापेक्ष ही निर्धारित होती। इसका प्रत्यक्ष मतलब यही था कि प्रत्येक नागरिक को जीवनोपयोगी सुविधाएं सुलभ कराना सरकार का कत्र्तव्य है। विशेष रूप से स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा व रोजगार को सुलभ कराना किसी भी सरकार की पहली जिम्मेदारी थी।