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संसद को कौन जगायेगा ?

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भारतीय संसद के इतिहास में 16वीं लोकसभा का आज अनिश्चितकाल के लिए स्थगित 14वां सत्र इसलिए संसद के माथे पर लगा हुआ दाग माना जायेगा क्योंकि बजट सत्र होने के बावजूद इसकी बैठक में बजट को तब बिना बहस के पारित किया गया जब अध्यक्ष के आसन के निकट नारेबाजी हो रही थी। बजट को हर कोण और हर नजरिये से खूब जांच-परख करके ही पारित करने का अधिकार लोकसभा के हर सदस्य को हमारे संविधान ने दिया है। इसमें सत्ता और विपक्ष के सदस्यों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रहता है।

देश की आम जनता से ही विभिन्न शुल्क मदों में उगाहे गए लाखों करोड़ रु. का खर्च देश के सर्वांगीण विकास में करने के दायित्व से बन्धी सरकार के हिसाब–किताब की कड़ाई से परख करने का अधिकार हमारी संसद में केवल लोकसभा के पास ही है। यह सदन जिस रूप में भी बजट को पारित करता है उसमें उच्च सदन राज्यसभा को भी संशोधन करने का अधिकार नहीं होता है। अतः जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने गए इस सदन का रुतबा खुद उन्हीं लोगों ने जमींदोज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिन्हें जनता न जाने कितने अरमान संजो कर चुनती है।

जिस सभा में ‘लोक’ पक्ष के इस उज्ज्वल आैर पारदर्शी पृष्ठ को फाड़ कर पूरी तरह काला कर दिया गया हो उसे हम ‘लोकसभा’ की परिभाषा के किन शब्दों में व्यक्त कर पाएंगे। आने वाली पीढि़यां निश्चित रूप से हमसे सवाल करेंगी कि वह कौन सी मजबूरी थी जिसकी वजह से भारत की उस महापंचायत की हालत चौराहे जैसी बना दी गई? लोकतन्त्र में शासन दिमाग की ताकत ( माइंड पावर) से चलता है न कि बाजुओं की ताकत ( मसल पावर) से । कोई भी सरकार दिमाग के बूते पर ही अपना इकबाल कायम करती है तानाशाही और लोकतन्त्र में यही सबसे बड़ा अन्तर होता है। संख्या में कम रहने के बावजूद विपक्ष अपने तर्कों से ही किसी भी सरकार का इकबाल खत्म करने में कामयाब उसी तरह हो जाता है जिस तरह पिछली मनमोहन सरकार का विपक्षी पार्टी भाजपा ने किया था।

मगर जब राजनीतिक दल लोकसभा में अपना स्थान बदलते हैं तो इस सिद्धान्त में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता और सत्ताधारी दल को देखना होता है कि उसकी दिमाग की ताकत में कोई कमी न आने पाए। जब आवाज संसद की चारदीवारी तोड़ कर सड़कों पर सुनाई देने लगे तो यह कोई साधारण घटना नहीं होती। प्राथमिक रूप से यह सरकार की ही जिम्मेदारी होती है कि सदन में व्यवस्था बनाये रखने के लिए वह सभी आवश्यक उपाय करें।

अतः तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा में नेता डेरेक ओबरायन के इस कथन को कोई भी व्यक्ति हल्के में नहीं ले सकता कि मौजूद सरकार ने न केवल जीएसटी (गुड्स ओंड सरविसेज टैक्स) देकर आम जनता की तकलीफें बढ़ा दी हैं, बल्कि जीएसडी (गवर्नेंट स्पोंसर्ड डिसरप्शन) देकर संसद की संवेदना और सदस्यों की तकलीफें भी बढ़ा दी हैं। उस पर तुर्रा मारा जा रहा है कि सत्तारूढ़ सांसद अपना वेतन नहीं लेंगे। लोगों ने चाहे भाजपा हो या कांग्रेस सभी के सदस्यों को संसद में बैठ कर चर्चा करके उन्हें समस्याएं सुलझाने के लिए चुना है। वेतन लेने के लिए नहीं।

क्या किसी जिले का पुलिस कप्तान यह कह सकता है कि उसके जिले में अपराधों की संख्या बढ़ गई है इसलिए वह अपना वेतन नहीं लेगा। लोकसभा में स्थान बदल जाने से इसके नियम नहीं बदल सकते, कौन इस बात का जवाब देगा कि प्रश्नपत्र लीक हो जाने पर अपनी जायज मांग उठाने वाली युवा पीढ़ी के छात्रों को रात के दो बजे ही पुलिस ज्यादतियां किस तरह हुईं ? कौन इस बात का जवाब देगा कि दलित अत्याचार निरोधक कानून में बदलाव किए जाने के विरुद्ध शान्तिपूर्ण आन्दोलन को किसने हिंसक बनाया?

कौन इस बात का जवाब देगा कि सरकारी बैंकों को हजारों करोड़ रु. का चूना लगाकर भागे नीरव मोदी को किन–किन लोगों का संरक्षण प्राप्त था ? कौन इस बात का जवाब देगा कि किसानों को उनकी फसल की लागत से डेढ़ गुनी कीमत कब से मिलनी शुरू हो जायेगी और इसका फार्मूला क्या होगा ? कौन इस बात का जवाब देगा कि कावेरी नदी के जल बंटवारे के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का पालन करने में सरकार विलम्ब क्यों कर रही है।

कौन यह बतायेगा कि आन्ध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने के लिए संसद में ही किये पिछली सरकार के वायदे को पूरा करने में वर्तमान सरकार को क्या दिक्कत है? यह समझा जाना चाहिए कि संसद में प्रधानमन्त्री द्वारा दिया गया कोई भी आश्वासन किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि भारत की सरकार के कार्यकारी मुखिया का होता है। सरकार आश्वासन देती है कोई व्यक्ति विशेष नहीं और सरकार एक सतत् प्रक्रिया होती है।

मगर सबसे बड़ा संकट लोकसभा की उस व्यवस्था पर आकर खड़ा हो गया है जो इसके अध्यक्ष के संरक्षण में दल निरपेक्ष रह कर प्रत्येक सदस्य के अधिकारों की रक्षा करती है। अव्यवस्था के चलते अविश्वास प्रस्तावों को खारिज तो किया गया है मगर अव्यवस्था फैलाने वाले सदस्यों ने लोकसभा के शेष सदस्यों के अधिकारों का बलात हनन भी किया है। इस तरफ भी हमें सोचना होगा। यह सत्र सबूत रहेगा कि संसद जागने का नाटक करते हुए सोते रही। एेसे में उसे जगाना खुद सो जाना तो नहीं है ?

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