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किसान क्यों कराहते हैं?

भारत को आज भी कृषि प्रधान देश कहा जाता है मगर किसानों की आर्थिक दशा सुधारने की पुख्ता निदेशित व्यवस्था हम आज तक विकसित नहीं कर पाये हैं। मगर इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि स्वतन्त्र भारत में इस तरफ कोई ध्यान ही नहीं दिया गया। आजादी के बाद की सभी सरकारों की निगाह में कृषि भारत के धरातलीय विकास का प्रमुख औजार रही और इस क्षेत्र में 1991 तक सार्वजनिक निवेश भी आनुपातिक ढंग से बढ़ा जिसकी वजह से 70 के दशक तक देश में हरित क्रन्ति हुई और खाद्यान्न उत्पादन में हम आत्मनिर्भर हुए परन्तु 1991 में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद इस क्षेत्र को लावारिस बना कर छोड़ दिया गया और हमारी प्राथमिकता में अर्थव्यवस्था के अन्य मानक आ गये। आजादी के बाद शुरू के पचास वर्षों में हमने अपने कृषि क्षेत्र को जिस तरह पोषित किया उसके बहुत बेहतर परिणाम आये और हमारे किसानों की मेहनत रंग लाई और भारत में प्रति हैक्टेयर उपज का औसत कई गुना बढ़ गया। 

हम खाद्यान्न आयात से निर्यात करने वाले मुल्क बन गये। पिछली सदी समाप्त होते-होते हमारे सामने खाद्यान्न प्रबन्धन की समस्या तक पैदा हो गई और तब राष्ट्रीय कृषि नीति का सवाल उठा। अतः केन्द्र में वाजपेयी सरकार के दौरान श्री नीतीश कुमार के कृषि मन्त्री रहते राष्ट्रीय कृषि नीति बनाई गई और भारत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार नियमों के तहत कृषि परिमाण आयात प्रतिबन्धों की चुनौती कबूल करने की स्थिति में आया परन्तु कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश की तब भी अनदेखी हुई और सब कुछ निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ने की मंशा सतह पर आती गई। इससे खेती की लाभप्रदता पर असर पड़ने लगा और इस क्षेत्र में ‘पूंजी सृजन’ लगातार कम होता चला गया। आज हम किसानों में जो रोष देख रहे हैं वह कृषि उपजों के विपणन, प्रबन्धन और विस्थापन से जुड़ी हुई समस्याओं का ही प्रतिफल है।

 इस बीच कृषि उत्पादन के विवि​िधकरण पर भी जोर दिया गया। इसका असर भी हमें तभी दिखाई पड़ा जब सरकारों ने अपनी तरफ से विशेष प्रोत्साहन योजनाएं चलाईं। इनमें दलहन- तिलहन उत्पादन का विशेष उल्लेख किया जा सकता है परन्तु भारत की भौगोलिक कृषि विविधता को ही देखते हुए ही कृषि को राज्यों का विषय बनाया गया था जिससे प्रत्येक राज्य अपनी शक्ति के बूते पर भारत के दूसरे राज्यों की आवश्यकता पड़ने पर आपूर्ति कर सके। इस सम्बन्ध में एक राज्य से दूसरे राज्य में कृषि उत्पादों की आवाजाही के नियमों को भी समयानुसार संशोधित किया गया और बाद में देश की सभी कृषि मंडियों को आपस में जोड़ तक दिया गया। इसके बावजूद यदि महाराष्ट्र में पैदा की गई प्याज के दाम वहां के किसानों को स्थानीय मंडियों में दो से सात रुपए किलो तक ही मिलते हैं और दिल्ली के बाजारों में इसकी खुदरा कीमत हमें न्यूनतम तीस रुपए किलो दिखाई पड़ती है तो आसानी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि अधिक फसल उगाने की सजा किसानों को कितनी बेदर्दी से दी जाती है । यही स्थिति उत्तर प्रदेश व अन्य राज्यों में आलू के किसानों की है परन्तु पंजाब के किसान भी आजकल दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे हैं। ये गेहूं व चावल उगाने वाले किसान हैं। इनकी मांगें व्यापक हैं। ये मांग कर रहे हैं कि सरकार ने डेढ़ वर्ष पहले जो न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने के लिए उच्चाधिकार प्राप्त समिति बनाई थी वह नाकारा साबित हुई है। किसानों की उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य इस प्रकार तय किया जाये कि उनकी लागत का यह कम से कम डेढ़ गुना हो। इसमें खेत में  काम करने की मजदूरी को भी शामिल किया जाये और जमीन की कीमत को भी जोड़ा जाये। यह फार्मूला जिसे सी-2 फार्मूला कहा जाता है। यह प्रसिद्ध कृषि अर्थशास्त्री श्री स्वामीनाथन ने दिया था। किसान यह भी मांग कर रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी रूप दिया जाये। अब हम जिस अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं उसे बाजार मूलक अर्थव्यवस्था कहते हैं। इसमें किसी भी वस्तु की कीमत बाजार की शक्तियां तय करती हैं परन्तु कृषि उत्पादों का सीधा सम्बन्ध आम नागरिक  की निजी अर्थव्यवस्था से होता है। इसमें उसकी निजी क्रय क्षमता देखी जाती है। 

जब भारत में 80 करोड़ लोगों की आमदनी पांच हजार रुपये प्रतिमाह से कम है तो स्वाभाविक रूप से सरकारों का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वे इस आबादी के जीवन जीने की राह को उपलब्ध स्रोतों के मार्फत आसान बनायें। दूसरी तरफ पसीना बहाकर किसान को भी उसकी मेहनत का पूरा मेहनताना मिले। इस सन्तुलन को बनाये रखने के लिए ही कृषि क्षेत्र को सब्सिडी देने की प्रथा शुरू की गई थी। जिसे बाजार मूलक अर्थव्यवस्था नकारती है और कहती है कि बाजार को ही मांग व सप्लाई के फार्मूले पर कृषि उपजों का दाम तय करने दो। इस फार्मूले पर चलने का परिणाम हमारे सामने आलू व प्याज के किसानों की स्थिति है। इससे निपटने के तरीके को ही कृषि प्रबन्धन कहा जाता है। यह प्रबन्धन बिना सरकारी हस्तक्षेप के संभव नहीं हो सकता। हालांकि सब्जी व अन्य कृषि उपज खरीद हस्तक्षेप के लिए नेफेड जैसी सरकारी एजेंसियां पहले से ही मौजूद हैं मगर बढ़ती उपज को देखते हुए इनकी क्षमता पूरी हो चुकी है और इसमें इजाफा नहीं हो रहा है। इसके साथ ही सरकार के पास निर्यात व आयात के विकल्प भी खुले रहते हैं जिनके लिए भी समय पूर्व प्रबन्धन की जरूरत होती है। जाहिर है कि किसानों की समस्याओं के हल की व्यवस्था भी हमें बहुआयामी करनी होगी जिससे भारत के हर इलाके के किसान आश्वस्त हो सकें। इसके लिए निश्चित रूप से पृथक विशेषज्ञ मंडल गठित करने की जरूरत होगी।