आखिर इराक में जनता के आक्रोश के सामने प्रधानमंत्री अब्दुल महदी को इस्तीफे का ऐलान करना ही पड़ा। अक्तूबर के शुरू में हुए सरकार विरोधी प्रदर्शनों में 450 के लगभग लोग मारे गए हैं। प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस बल अत्यधिक बल प्रयोग कर रहा था लेकिन हालात काबू से बाहर होते गए महदी एक वर्ष पहले ही प्रधानमंत्री बने थे, उस समय उन्होंने जिन सुधारों का वादा किया था वो उन्हें पूरा नहीं कर सके। प्रधानमंत्री ने कैबिनेट में बदलाव करने और बेरोजगारी दूर करने का वादा किया था लेकिन इराक की अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ा गई।
पहले इराक-ईरान युद्ध के चलते और फिर अमेरिका द्वारा सद्दाम हुसैन को सत्ता से उखाड़ फैंकने के बाद इराक सम्भल ही नहीं पाया। खाड़ी युद्ध 1991 में इराक द्वारा कुवैत पर हमले के बाद शुरू हुआ। अमेरिका के नेतृत्व वाली गठबंधन सेना ने इराक की सेना को हटाकर उसके कब्जे से कुवैत को मुक्त कराया। 2003 में सद्दाम हुसैन को फांसी पर लटकाए जाने के बाद खाड़ी युद्ध समाप्त हुआ। अमेरिका ने जिन-जिन देशों में हस्तक्षेप किया वह आज तक सम्भल नहीं पाए।
सद्दाम हुसैन के पतन के बाद जब शिया समुदाय के नेताओं ने सरकार का गठन किया तो इस समुदाय को उम्मीद थी कि उनका जीवन स्तर पहले से बेहतर होगा लेकिन बीते कुछ वर्षों में ऐसा नहीं हो सका। यानी शिया नेताओं के हाथ में सरकार आने के बाद भी स्थितियां नहीं सुधरीं। सद्दाम हुसैन के पतन के बाद इराक में पुननिर्माण का कार्यक्रम शुरू किया गया। इस दौरान इराक विदेशी कर्ज में पूरी तरह डूबा हुआ था। राष्ट्रीय आय की एक बड़ी मात्रा सेना पर खर्च की जाती रही। जिसके चलते महंगाई और बेरोजगारी भी बढ़ती गई।
उधर पश्चिम इराक में कट्टरपंथी सुन्नी आतंकवादियों ने परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए 2013 में इराक इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड सीरिया यानी आईएसआईएस ने चुनौती खड़ी कर दी। 2013 के अंत तक आईएसआईएस ने देश के पश्चिमी और उत्तरी क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया। हालांकि अमेरिका और इराकी सेनाओं ने 2015 तक इराक के अधिकांश इलाकों से आईएसआईएस को खदेड़ दिया लेकिन अभी भी आईएस की सीरिया के कुछ इलाकों में मौजूदगी है।
अमेरिकी सेना की स्पेशल डेल्टा फोर्स ने सीरिया में आईएस सरगना अबू बकर अल बगदादी को मार गिराया है। एक लम्बे राजनीतिक उथल-पुथल का प्रभाव इराक पर पड़ना ही था। राजनीतिक और शीर्ष अधिकारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण देश भारी आर्थिक समस्याओं से घिर गया। युवाओं में बेलगाम बेरोजगारी के चलते युवाओं का आक्रोश सड़कों पर दिखाई पड़ने लगा। 70 फीसदी शिया आबादी वाले इराक में सबसे बड़े प्रदर्शन करबला, बगदाद और दक्षिणी इराक के दूसरे शहरों में हुए।
ये सभी शिया बहुल इलाके है। इन इलाकों में प्रदर्शनकारियों के निशाने पर शिया सरकार, शिया राजनीतिक दल और मिलीशिया हैं। कई जगहों पर पड़ोसी शिया मुल्क ईरान का भी बड़ा विरोध रहा है। ईरान समर्थित मिलीशिया और राजनीतिक दलों के मुख्यालयों में आग लगाने की घटनाएं भी सामने आईं। इन सबसे साफ है कि प्रदर्शनों में शिया समुदाय की सबसे ज्यादा हिस्सेदारी है और ये विशेष रूप से अपने ही समुदाय से जुड़े संस्थानों को निशाना बना रहे हैं।
विदेश मामलों के जानकार इसकी कई वजह बताते हैं। 16 साल पहले जब सुन्नी तानाशाह सद्दाम हुसैन को अमेरिका ने उखाड़ फैंका था तो देश की शिया आबादी सबसे ज्यादा खुश थी। इसकी वजह यह थी कि सद्दाम हुसैन ने अपने प्रशासन में ज्यादातर नियुक्तियां सुन्नी मुसलमानों को दी हुई थीं। उसकी सभी नीतियां भी सुन्नी समुदाय को ध्यान में रखकर ही बनाई जाती थीं। तब बहुसंख्यक शिया समुदाय को लगता था कि उनके साथ अन्याय हो रहा है।
16 सालों में बनी सरकारें लोगों को पानी, बिजली, सुरक्षा और नौकरी जैसी बुनियादी चीजें भी देने में विफल रही हैं। लोग इस बात को लेकर काफी नाराज हैं कि तेल का भारी भंडार होने के बाद भी देश की अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी दर और बुनियादी ढांचे का बुरा हाल है। इराक में रोजगार दर 2003 से 2017 तक औसतन 44.06 प्रतिशत थी लेकिन 2017 के बाद इसमें रिकार्ड गिरावट दर्ज की गई और यह 28.20 पर पहुंच गई।
इराक की एक और बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक वह इस मामले में 180 देशों की सूची में 168वें स्थान पर खड़ा है। एक इराकी स्वतंत्र संस्था द्वारा किए गए एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक इस समय 80 फीसदी से ज्यादा इराकी भ्रष्टाचार को देश की सबसे बड़ी समस्या मानते हैं। इस सर्वेक्षण में देश के 75 फीसदी लोगों ने माना कि इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों को खत्म करने के बाद भी उनका देश भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाही की वजह से गलत दिशा में जा रहा है।
युवा किसी भी देश की सबसे बड़ी उम्मीद होते हैं लेकिन इराक में जो कुछ हो रहा है उसने सबसे ज्यादा युवाओं को निराश और हतोत्साहित किया है। युवाओं को अपनी सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। देश के नौजवान इतने ज्यादा निराश हैं कि 80 फीसदी का कहना है कि देश में भ्रष्टाचार और बेरोजगारी को देखकर उन्हें अपनी जिन्दगी का कोई मतलब नजर नहीं आता। इराक के शिया मुसलमान किस कदर अपनी सरकार से परेशान हैं कि केवल 15 फीसदी शिया मुसलमानों को ही अपनी सरकार पर भरोसा रह गया है, जबकि सुन्नी मुसलमानों के मामले में यह आंकड़ा 25 फीसदी है।
अपने देश की न्याय व्यवस्था पर भी केवल 19 फीसदी शिया मुसलमान ही भरोसा करते हैं, जबकि सुन्नी समुदाय के 56 फीसदी लोगों को अपने देश की अदालतों पर भरोसा है। इराकियों में अपने धार्मिक नेताओं और धार्मिक संस्थाओं को लेकर भी भरोसा तेजी से घटा है। 2004 में देश के 80 फीसदी लोग धार्मिक नेताओं और संस्थानों पर विश्वास करते थे लेकिन 2019 में केवल 40 फीसदी लोगों को ही अपने धार्मिक नेताओं और संस्थानों पर भरोसा रह गया है। इराक के प्रधानमंत्री महदी के इस्तीफे का ऐलान किए जाने के बावजूद इराक शांत होने का नाम नहीं ले रहा।
प्रदर्शनकारी भ्रष्ट व्यवस्था को दुरुस्त करने और विदेशी शक्तियों से मुक्त कराने की मांग पर अड़े हुए हैं। प्रदर्शनकारियों में ईरान के खिलाफ भी काफी आक्रोश है क्योंकि वह इराक की सरकार को सहयोग दे रहा है। इराक की तबाही का कारण भ्रष्टाचार और बेरोजगारी है। देखना होगा इराक की स्थितियां क्या मोड़ लेती हैं।