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जोशीमठ क्यों धंस रहा है?

भारत की भौगोलिक विविधता को संज्ञान में लिये बिना जिस तरह का इकतरफा और इकसार भौतिक विकास का फार्मूला हम अपना रहे हैं

भारत की भौगोलिक विविधता को संज्ञान में लिये बिना जिस तरह का इकतरफा और इकसार भौतिक विकास का फार्मूला हम अपना रहे हैं और अपने प्राकृतिक स्रोतों का दोहन पारिस्थितिकी और पर्यावरण के सन्तुलन को बिगाड़ कर रहे हैं उसी का परिणाम है कि आज उत्तराखंड का जोशीमठ शहर विनाश के मुंहाने पर बैठा हुआ लग रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों की आबादी में पिछले चार दशकों में जिस तीव्र गति से वृद्धि हुई है और इन पर जिस तरह मैदानी वास्तुकला व भवन निर्माण टैक्नोलॉजी के अनुरूप कंक्रीट के जंगलों का निर्माण हुआ है उसी का नतीजा है कि हमारे पहाड़ी क्षेत्र के शहरों व कस्बों पर आपदा के बादल मंडराने लगे हैं। हम देख चुके हैं कि कुछ वर्ष पहले श्री केदारनाथ धाम में आपदा आयी थी और जल-थल एक हो गया था। पहाड़ी यात्राओं को सुगम बनाने का हमने जिस विकास की टैक्नोलॉजी पर चलना शुरू किया उससे हमारे पहाड़ ही छलनी होने लगे और अब स्थिति यह हो गई है कि इन पर बसे लोगों का जीवन खतरे में पड़ने लगा है। 
जोशीमठ पवित्र तीर्थ स्थल श्री बदरीनाथ धाम व हेमकुंड साहब जाने का प्रमुख पड़ाव है। जहां से चीन की सीमा भी बहुत दूर नहीं है। जोशीमठ की महत्ता एक पवित्र नगरी के रूप में स्थापित है क्योंकि यह श्री बदरीनाथ धाम की यात्रा का पहला चरण समझा जाता है। सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि पवित्र या धार्मिक स्थलों की शुचिता को तभी कायम रखा जा सकता है जबकि उन स्थानों की पारंपरिक व सांस्कृतिक धाराओं को शुद्ध रखा जाये। ये स्थान भौतिक विकास के केन्द्र के रूप में विकसित नहीं किये जा सकते। पहाड़ों की अपनी सम्पूर्ण संस्कृति रही है जिसमें भवन निर्माण से लेकर वास्तु कला तक शामिल है परन्तु पर्यटन को बढ़ावा देने के फेर में हमने इन स्थानों को मैदानी इलाकों की तर्ज पर विकसित करने की भूल की है जिसकी वजह से यहां भौगोलिक असंतुलन पैदा हो रहा है। दूसरे ​जिस प्रकार हिमालय के क्षेत्र में हमने जल विद्युत व अन्य परियोजनाओं को अंधाधुंध तरीके से शुरू किया है उससे इन पहाड़ों की जड़ें कमजोर हो रही हैं और उन पर बसे शहर दरकने से दिख रहे हैं। यह हाल केवल जोशीमठ का ही हो, एेसा नहीं है बल्कि उत्तराखंड के गोपेश्वर, चमोली व अन्य प्रमुख स्थानों में भी एेसा नजारा बनता दिखाई पड़ने लगा है। जोशीमठ की हालत तो यह हो चुकी है कि वहां अब गर्मियों के मौसम में  एयर कंडीशनर व बिजली के पंखे आम बात हो गई है जबकि अब से चालीस वर्ष पहले तक इस पहाड़ी शहर पर मौसम बहुत सुहाना रहा करता था। यह सब इस शहर में बेतरतीब विकास होने की वजह से ही हुआ है और इसमें कंक्रीट की बेतहाशा इमारतें बनने की वजह से हुआ है।
 पूरे जोशीमठ में अब एक इलाका भी एेसा नहीं बचा है जहां आबादी न हो और इमारतों के झुंड नजर न आते हों। एेसे भौतिक विकास ने इस क्षेत्र का भूगोल ही बदल कर रख दिया है। इसके साथ ही पहाड़ों पर जाने वाले मार्गों को जिस तरह चौड़ा किया जा रहा है उससे भी समूचे हिमालय क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। अकेले उत्तराखंड में ही जब छोटी-छोटी जल विद्युत परियोजनाओं की संख्या सैकड़ों में हो तो हमें समझ जाना चाहिए कि पहाड़ों के प्राकृतिक स्वरूप को किस तरह की क्षति हो रही होगी। अपने पहाड़ों को बचाने के लिए हमने अभी तक किसी एेसी टेक्नोलॉजी का विकास नहीं किया है जिससे इनकी सुन्दरता भी बची रहे और इनका विकास भी पहाड़ी परिस्थितियों के अनुरूप नियन्त्रत परिस्थितियों में हो सके। विकास का जो ढांचा राजधानी दिल्ली में है वह भला जोशीमठ या किसी दूसरे पहाड़ी शहर पर कैसे लागू हो सकता है क्योंकि दोनों के भूगोल में जमीन-आसमान का अंतर है। परन्तु हमने पहाड़ों की भवन निर्माण कला को आदिम युग की मान लिया और वहां भी कंक्रीट के जंगल खड़े कर डाले।
 जोशीमठ में आज यातायात को नियंत्रण करने के लिए पुलिस को वैसी ही मशक्कत करनी पड़ती है, जैसी कि दिल्ली के चांदनी चौक में। इसे हम विकास नहीं कह सकते। हमें भारत में भी स्विट्जरलैंड की तकनीक के अनुरूप विकास का एेसा ढांचा खड़ा करना होगा जिससे पहाड़ों का नैसर्गिक स्वरूप बचा रहे। पर्वतीय क्षेत्रों में केवल पर्यावरण मूलक विकास परियोजनाओं का ढांचा खड़ा करना होगा। पहाड़ों के लोग कई दशकों से आवाज उठा रहे हैं कि पर्वतीय सम्पदा का दोहन करने से बड़ी-बड़ी निजी कम्पनियों को रोका जाये, मगर इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया। अतः आज जोशीमठ की हालत यह है कि इसकी सड़कों में दरारें पड़ रही हैं और जहां-तहां से पानी रिस रहा है तथा सैकड़ों मकानों में भी दरारें पड़ चुकी हैं जिनमें रहना खतरे से खाली नहीं है। प्रशासन अभी तक पांच सौ से अधिक मकानों के निवासियों को सुरक्षित स्थानों पर भेज चुका है मगर कौन कह सकता है कि आने वाले समय में यह संख्या और नहीं बढे़गी क्योंकि पूरा शहर ही एक दरकती हुई जमीन पर बैठा हुआ सा लग रहा है। पहाड़ों को हम जितना खोखला करेंगे उतनी ही प्राकृतिक आपदाओं की आशंका बढे़गी। विकास की चमक में हमें ध्यान रखना होगा कि हम जिन पहाड़ों पर बैठे हैं वे ही कहीं अन्दर से कमजोर न पड़ जाये। वैसे भी हिमालय का पर्वतीय क्षेत्र कच्चे पहाड़ों का समूह कहलाता है, जो मिट्टी, पत्थर व पेड़-पौधों का संयुग्म है। यह एेसी विरासत है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे जानी है। अतः इसकी सुरक्षा के लिए हमें आधुनिक विज्ञान के भरोसे एेसे कदम उठाने होंगे जिससे इनकी सुरक्षा को कोई खतरा पैदा न हो सके। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com 

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