1818 में लड़े गए भीमा कोरेगांव युद्ध पर 200 वर्ष बाद 2018 में सड़कों पर संघर्ष होता है तो हर आदमी सोचने को विवश है कि आखिर देश किधर जा रहा है। कोरेगांव युद्ध को लेकर इतना कोहराम मचा कि महाराष्ट्र के कई शहरों में हिंसा हुई और पुणे में भीमा कोरेगांव युद्ध की 200वीं वर्षगांठ मनाने के दौरान भड़की जातीय हिंसा में एक दलित युवक की मौत हो गई थी, जिसके बाद हिंसा फैलती चली गई। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत जो समानता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के स्तम्भों पर टिका हुआ है, क्या आज भी उसकी जड़ों को हजारों वर्ष पुराने जातीय भेदभाव ने जकड़ा हुआ है? क्या काेरेगांव की हिंसा ने यह साबित नहीं किया कि जिस गुलामी की मानसिकता को जानकर अंग्रेजों ने भारत पर 200 वर्ष तक शासन किया वह मानसिकता भारतीयों में आज तक कायम है।
सवाल यह भी है कि देश को आजाद हुए 70 वर्ष हो गए तो फिर दलित वर्ग पेशवा बाजीराव द्वितीय से अंग्रेजों की फौज द्वारा लड़े गए युद्ध की जीत का जश्न क्यों मनाता है। यह गुलाम मानसिकता का एक पहलू है या इसके पीछे दलित सियासत का एजैंडा छिपा हुआ है? दूसरा पहलू यह भी है कि दलित वर्ग ब्रिटिश फौज की इस जीत का जश्न इसलिए मनाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जीतने वाली ईस्ट इंडिया कम्पनी से जुड़ी फौज की टुकड़ी में ज्यादातर महार समुदाय के लोग थे, जिन्हें अछूत माना जाता था। कोरेगांव की लड़ाई का इतिहास बताता है कि पेशवा बाजीवराव द्वितीय के नेतृत्व में 28 हजार मराठा पुणे पर हमला करने की योजना बना रहे थे। महार दलितों से सजी अंग्रेज टुकड़ी ने साहस का परिचय दिया। इस लड़ाई में 834 कंपनी फौजियों में से 275 के करीब मारे गए। इतिहासकारों के मुताबिक पेशवा के 500-600 सैनिक भी मारे गए।
इतिहासकार महारों और पेशवा फौजों के बीच इस युद्ध को विदेशी आक्रांता अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय शासकों के युद्ध के तौर पर देखते हैं लेकिन दूसरा पक्ष यह भी है कि महारों के लिए यह अंग्रेज से ज्यादा अपनी अस्मिता की लड़ाई थी। वर्ण व्यवस्था का शिकार भारत में सबसे ज्यादा अछूत ही हुए हैं। जो व्यवहार प्राचीन भारत में अछूतों के साथ हुआ था, वही व्यवहार पेशवा शासकों ने महारों के साथ किया। इतिहास में लिखा गया है कि शहर में प्रवेश करते समय महारों को अपनी कमर में एक झाड़ू बांध कर चलना पड़ता था ताकि उनके ‘प्रदूषित’ और ‘अपवित्र’ पांवों के निशान पीछे घिसटते झाड़ू से साफ होते चले जाएं। उनको अपने अलग बर्तन रखने होते थे। वे सवर्णों के कुएं से पानी भी निकाल कर पी नहीं सकते थे। दलित अपने साथ छूआछूत के व्यवहार से काफी नाराज थे इसलिए वे ब्रिटिश फौज से जा मिले थे। अंग्रेजों ने पेशवा राज को खत्म कर दिया था। भारत जैसे प्राचीन और विविधतापूर्ण देश का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है जिन पर अलग-अलग राय होना स्वाभाविक है। इतिहास की कई घटनाएं एक-दूसरे की भावनाअों से टकराती हैं।
देश की आजादी के लिए अनेक लोगों ने कुर्बानियां दी हैं, सभी वर्गों ने आजादी की लड़ाई में योगदान दिया। समाज के कई वर्ग काेरेगांव की लड़ाई को ब्रिटिश कंपनी ईस्ट इंडिया के हाथों एक भारतीय शासक की पराजय के रूप में देखता है लेकिन दलित वर्ग अपनी जीत को अस्मिता के तौर पर देखता है। आजादी के बाद तो दलितों को अंग्रेजों की जीत का जश्न मनाना छोड़ देना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेजों ने जीत के बाद काेरेगांव में विजय स्तम्भ बनवा दिया था जहां हर साल दलित इकट्ठे होते हैं। क्योंकि इस वर्ष लड़ाई की 200वीं सालगिरह थी इसलिए भारी संख्या में दलित वहां इकट्ठे हुए थे। कारण यह भी है कि आजादी के बाद आज तक दलितों को समानता का हक पूरी तरह नहीं मिला। भीमा कोरेवाल में जिन लोगों ने हमला कर दलित युवक की हत्या की क्या वे अंग्रेजों की जीत के जश्न का विरोध कर रहे थे या उनमें दलितों को दबाने की भावना थी।
200 वर्षों से दलित विजय दिवस मनाते हैं, पहले तो कभी उन्हें रोका नहीं गया, पहले तो कभी हमला नहीं हुआ तो फिर अब ऐसा क्यों किया गया? महाराष्ट्र में हिंसा के बीज तो कुछ दिन पहले ही पड़ गए थे। पुणे के साथ वड़ू गांव में शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी की समाधि और उनका अंतिम संस्कार करने वाले गोविंद महाराज की समाधि है। गोविंद महाराज की समाधि पर तोड़फोड़ से विवाद शुरू हुआ था। वे कौन लोग थे जिन्होंने भगवा ध्वज हाथों में लेकर दलितों पर हमला किया। प्रशासन की चूक भी सामने आई। जब प्रशासन को पता था कि भारी संख्या में लोग जुटेंगे तो फिर उसने उचित व्यवस्था क्यों नहीं की। गुजरात का ऊना कांड, रोहित वेमुला और भीमा कोरेगांव की घटनाएं देश के लिए अच्छा संकेत नहीं। समाज के विभिन्न वर्गों में खाई बढ़ रही है। इसे जल्द नहीं पाटा गया तो समाज पूरी तरह बंट जाएगा। महाराष्ट्र दलित सियासत के एजैंडे की प्रयोगशाला तो बनेगा ही।