भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी.एन. शेषन भौतिक संसार को अलविदा कह चुके हैं। प्रभावशाली व्यक्तित्व के साथ विवाद भी जुड़ जाते हैं इसलिए कुछ राजनीतिज्ञों की नजर में उनका व्यक्तित्व विवादित हो सकता है लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि उन्हें भारत में चुनाव सुधार के पितामह के रूप में दर्जा दिया जाए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
उन्होंने चुनावों को स्वच्छ बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण सुधारों को लागू किया। जब भी चुुनाव आते हैं तो निर्वाचन आयोग की कार्रवाई पर लोग पैनी नजर रखते हैं और वे स्वतंत्र रूप से निर्वाचन आयोग की कार्रवाई का विश्लेषण करते हैं तो उन्हें याद आते हैं टी.एन. शेषन। लोगों को अक्सर यह कहते सुना गया कि काश आज टी.एन. शेषन होते। बाबा साहिब अम्बेडकर ने जिस संविधान की रचना की उसमें लोकतंत्र के चार खम्भों को आधार माना गया। जिसमें न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और प्रैस शामिल है लेकिन इन लोकतंत्र के चार स्तम्भों में निहित है निर्वाचन आयोग।
भारत के दसवें मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर उन्होंने 12 दिसम्बर 1990 को शपथ ली थी। तब वह समय था जब लोग चुनाव आयोग के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे और लोकतंत्र का त्यौहार अर्थात चुनाव कुछ बड़े नेताओं की गोपनीय सलाह से करवाये जाते थे। मुख्य निर्वाचन आयोग के पास क्या-क्या अधिकार है और निर्वाचन आयुक्त के पास क्या शक्तियां हैं, इसके बारे में भी देश के लोगों को कोई ज्यादा जानकारी नहीं थी लेकिन टी.एन. शेषन के पदभार संभालने के बाद सब कुछ बदल गया।
उन्होंने ही सभी को बताया कि चुनाव आयोग संवैधानिक संस्था है और इसके पास कुछ अधिकार भी होते हैं। उन्होंने निर्वाचन आयोग की अथार्टी स्थापित की। उन्होंने भारत में कई चुनाव सुधारों के प्रस्ताव रखे और राजनीतिक दलों को कानून का सख्ती से पालन करने की चेतावनी दे दी। कौन नहीं जानता िक भारतीय राजनीति 3 एम के आधार पर चलाई जाती रही है यानि मनी, मसल्स और माइंड।
चुनावों में धनबल और बाहुबलियों का बोलबाला रहता था। चुनावों की घोषणा होते ही चुनावों के करिंदे काम में जुट जाते थे। वोटों के ठेकेदार राजनीतिक दलों से ठेका हासिल कर लेते थे। मतदाताओं को खुलेआम धन और शराब का प्रलोभन दिया जाता था। मतदाताओं की पहरेदारी से लेकर मतदान करने तक का पूरा तन्त्र काम करता था। भारतीय राजनीतिज्ञों की अनिच्छा के कारण अभी भी चुनाव सुधार पूरी तरह लागू नहीं हो पायेे हैं। चुनावों में आज भी कुछ चीजें होती हैं लेकिन अब काफी हद तक इन पर रोक लग चुकी है।
उन्होंने सभी पात्र मतदाताओं को पहचानपत्र देने, चुनाव आचार संहिता के पालन के लिए सख्त कार्रवाई, उम्मीदवारों के चुनावी खर्च की सीमा निर्धारित करना, शराब और पैसे के वितरण पर प्रतिबन्ध, चुनाव आयोग को स्वायत्त दर्जा, जाति और साम्प्रदायिक भावनाओं के आधार पर वोट मांगने और चुनाव अभियानों के लिए धार्मिक स्थानों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने जैसे चुनाव सुधार किए। टी.एन. शेषन ने बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों को झटका दिया तो कई राजनीतिक दलों को उनकी सख्त कार्यशैली पसन्द नहीं आई। एक समय तो ऐसा आया कि हर कोई उनके खिलाफ उठ खड़ा हुआ। स्थिति शेषन बनाम नेशन जैसी हो गई थी लेकिन टी.एन. शेषन अडिग रहे। उनकी स्वतन्त्र प्रवृत्ति का सबसे सख्त उदाहरण तब मिला था जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन सरकार को पूछे बिना चुनाव स्थगित कर दिये थे।
उन्होंने चुनाव आयोग के साथ सरकार का पिछलग्गू जैसा व्यवहार खत्म कराया और स्पष्ट कहा कि निर्वाचन आयुक्त भारत सरकार का हिस्सा नहीं होता। टी.एन. शेषन जिस भी पद पर रहे उनका बड़े अफसरों से टकराव ही रहा। वह सरकारी अफसरों को उनकी गलतियों के लिए भी लताड़ते रहे। नरसिम्हा राव सरकार ने टी.एन. शेषन के पर कतरने के लिए ही निर्वाचन आयोग में दो और चुनाव आयुक्त जीवीजी कृष्णामूर्ति और एम.एस. गिल की नियुक्ति कर दी थी। उन्होंने अपने कार्यकाल में नरसिम्हा राव से लेकर लालू यादव तक किसी को नहीं बख्शा।
6 साल तक निर्वाचन आयोग ऐसा शेर बनकर रहा जो सिर्फ दहाड़ता नहीं था बल्कि समय आने पर शिकार भी करता था। उन्होंने आदर्श चुनाव संहिता के उल्लंघन पर कुछ चुनाव भी रद्द किए थे। उनके पूरे व्यक्तित्व को इस बात से समझा जा सकता है कि जो सर्विस के पहले साल में कही गई थी- ‘‘शेषन, तुमने अपने लिए नामुमकिन से स्टैंडर्ड बना रखे हैं।’’ लेकिन उन्होंने वो सारे स्टैंडर्ड मुमकिन बना िदए। चुनाव सुधारों के पितामह के तौर पर टी.एन. शेषन हमेशा याद रखे जाएंगे।