भ्रष्टाचार का मुद्दा सीधे तौर पर राजनीति में सदाचार से जुड़ा हुआ है और सदाचार ऐसा विषय है जिसके कई आयाम हैं। इनमें वित्तीय ईमानदारी से लेकर व्यक्तिगत आधार पर निजी जीवन में स्वच्छता और दलगत भावना से ऊपर उठकर संविधानपरक शासन लोकलज्जा के भाव से चलाना प्रमुख होता है परन्तु यह कार्य तभी हो सकता है जब सत्ता पर बैठने वाले राजनैतिक दलों की संरचना पूरी तरह निजी हितों की तिलांजलि देकर गढ़ी गई हो। किसी कदाचारी को जब राजनैतिक दल अपना प्रत्याशी बनाकर चुनावी मैदान में उतारते हैं तो भ्रष्टाचार को वैधता प्रदान करते हुए पूरे तालाब को गन्दला कर देते हैं मगर पिछले लगभग तीस साल से दिक्कत यह हो गई है कि भारत के लोकतन्त्र की पूरी गागर में ही भांग मिल चुकी है जिसकी वजह से यह पता लगाना मुश्किल होता जा रहा है कि किस पार्टी के लोग कम भ्रष्टाचारी हैं और किस पार्टी के ज्यादा।
राजनैतिक आचार संहिता का भ्रष्टाचार मानों एक आवश्यक अंग हो गया है। इस व्यवस्था में व्यक्तिगत ईमानदारी का अर्थ केवल भ्रष्टाचार से बने शरीर पर पहने कपड़े से होकर रह गया है। सवाल नीरव मोदी या विजय माल्या या ललित मोदी या अन्य ऐसे ही किसी वित्तीय घपलेबाज का नहीं है, बल्कि सवाल उस रसूखदारी का है जिसकी वजह से ऐसे घपलेबाज बड़ी ही आसानी से अपना कारोबार चलाते हैं परन्तु इनके वापस आने से भ्रष्टाचार पर विजय का भाव जागृत करना किसी देश की राजनीति का हिस्सा नहीं हो सकता बल्कि यह म्युनिसपलिटी की राजनीतिक सोच कहा जा सकता है। भारत के लोकतन्त्र की राष्ट्रीय राजनीति कुछ बेनंग-ओ-नाम लोगों के आ जाने से प्रभावित नहीं हो सकती और न ही किसी भी राजनैतिक दल को एेसा विचार रखना चाहिए।
भारत के लोगों को मूर्ख समझने से बड़ी कोई मूर्खता नहीं हो सकती क्योंकि वे जानते हैं कि चुनावों से पहले सरकारें जो कवायद करती हैं वह केवल सर्कसी कसरत होती है और उनका लक्ष्य चुनावों में जीत हासिल करने के अलावा और कुछ नहीं होता। इसका प्रमाण पिछली मनमोहन सरकार द्वारा अपने आखिरी साल में खाद्य सुरक्षा कानून पारित करना था। यह कानून हर तरफ से गरीबों के हित में होने के बावजूद चुनावी शगूफा बनकर रह गया था। दरअसल भ्रष्टाचार ऐसी गंगा है जो नीचे से ऊपर की तरफ नहीं बल्कि ऊपर से नीचे की तरफ बहती है। इस सन्दर्भ में पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. चौधरी चरण सिंह का उदाहरण सबसे सटीक है। जब 1969 में उत्तर प्रदेश के मध्यावधि चुनावों में चौधरी साहब अपनी नई पार्टी भारतीय क्रान्ति दल बनाकर उतरे तो राज्य की जनता ने उन्हें शानदार समर्थन दिया।
चुनावों के नतीजे आने से पहले आकाशवाणी ने उनका साक्षात्कार किया और राज्य में फैले भ्रष्टाचार के बारे में उनसे सवाल पूछा तो उन्होंने जो उत्तर दिया उसे उन्हीं की भाषा में सुनिये- ‘‘देखो भाई करप्शन की गंगा नीचे से ऊपर की तरफ नहीं बहती बल्कि ऊपर से नीचे की तरफ बहती है। जिस दफ्तर का आला अधिकारी ईमानदार होगा उसके बाकी बचे सभी कर्मचारियों को ईमानदार होना पड़ेगा। इसलिए जिस दिन चुनाव के नतीजे आयेंगे और उनमें मेरी पार्टी जीत गई तो आधा भ्रष्टाचार उसी दिन खत्म हो जायेगा और जिस दिन मैं मुख्यमन्त्री पद की शपथ लूंगा उस दिन बाकी बचा भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा।” इसके पीछे चौधरी साहब की भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने की सच्ची व पक्की प्रतिबद्धता थी।
यह प्रतिबद्धता केवल वित्तीय स्तर पर ही नहीं थी बल्कि राजनैतिक स्तर पर भी थी क्योंकि उन्होंने 1984 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान अपने एकमात्र पुत्र श्री अिजत सिंह को राजनीति में आने के योग्य इसलिए नहीं समझा था कि वह गांवों के आम लोगों के जीवन से बेखबर रहकर एक कम्प्यूटर इंजीनियर बने थे। उनकी यह सम्पूर्ण सदाचारिता ही उनके विरोधियों की आंखों में बुरी तरह खटकती थी और उनकी अपनी पार्टी के भीतर भी हर नेता की इसी पैमाने पर तसदीक होती थी लेकिन वह गांधीवादी विचारों से ओतप्रोत राजनीतिक पीढ़ी का दौर था और आज का दौर बाजारमूलक अर्थव्यवस्था में पनपे हुए नेताओं का है। अतः पूरा सन्दर्भ ही बदल गया है। आज की राजनीति में कार्पोरेट क्षेत्र की शासन गतिविधियों में जिस तरह हिस्सेदारी बढ़ी है उसने भ्रष्टाचार को ही नया आयाम दे दिया है क्योंकि हर योजना में इसी कार्पोरेट क्षेत्र का हिस्सा बंटा हुआ है।
सवाल इस आधारभूत प्रणाली को पलटने का है जिससे सरकारी खजाने के धन का कार्पोरेट खजाने के धन में घालमेल बन्द हो। ऐसा नहीं है कि पहले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक व्यापारियों को कर्ज नहीं देते थे मगर उसकी आचार संहिता व्यक्तिगत पसन्द की नहीं रहती थी, सवाल इसी में सुधार लाने का है। इसके साथ ही यह भी देखना जरूरी है कि कहीं भी वित्तीय जांच एजेंसियों की साख पर भी दाग न लगने पाये क्योंकि इनका काम सिर्फ कानून के अनुसार काम करना होता है। सीबीआई का गोरखधन्धा पूरे देश के सामने है कि किस प्रकार इस संस्था ने खुद को राजनैतिक दलदल में फंसा लिया है। राजनैतिक दल आते-जाते रहते हैं मगर संस्थाओं का वजूद सत्यापन के सिद्धान्त पर टिका रहता है।