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रुपये में विश्व व्यापार!

इसमें अब कोई दो राय नहीं है कि आर्थिक मोर्चे पर भारत मौद्रिक क्षेत्र में भी आत्मनिर्भर बनने के लिए नवीनतम कदम उठाना चाहता है।

इसमें अब कोई दो राय नहीं है कि आर्थिक मोर्चे पर भारत मौद्रिक क्षेत्र में भी आत्मनिर्भर बनने के लिए नवीनतम कदम उठाना चाहता है। इसका रास्ता रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद जिस तरह खुला है, उसका उपयोग भारत के अर्थ विशेषज्ञों ने इस प्रकार करने का मन बनाया कि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा डालर का विदेश व्यापार से चुनौती रहित रुतबा हल्का किया जा सके और अपनी ही मुद्रा रुपये में द्विपक्षीय देशों के कारोबार में भुगतान व खरीद के लिए प्रयोग किया जा सके। युद्ध शुरू होने पर यूरोपीय देशों व अमेरिका द्वारा रूस के खिलाफ जो आर्थिक प्रतिबन्ध लगाये गये उनमें सबसे प्रमुख रूस स्थित विदेशी बैंकों में रूसी बैंकों के ‘स्विफ्ट अकाऊंट’ बन्द करना था। इनकी मार्फत रूस विदेशों से आयात-निर्यात कारोबार का भुगतान व जमा पावती डालर मुद्रा में किया करता था। मगर ये अकाउंट बन्द किये जाने के बाद भारत और रूस में अपनी-अपनी मुद्रा रुपये व रूबल में कारोबार शुरू किया गया जिसकी शुरूआत रूस से आयातित कच्चे तेल के कारोबार से हुई और डालर में पावती व भुगतान की शर्त समाप्त हो गई। 
भारत के अधिकतर बैंकों में रूसी बैंक के एेसे अकाउंटों या खातों को ‘विशेष रुपये वास्त्रो’ या ‘स्पेशल रुपी वास्त्रों अकाउंट’ एसआरवी अकाऊंट कहा गया। यह जानकारी अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस द्वारा रिजर्व बैंक से पूछे गये सूचना के अधिकार के तहत प्रदान की गई है। इसका मतलब यह हुआ कि भारत व रूस सीधे रुपये या रूबल में अपना लेन- देन कर सकते हैं और उन्हें इसके लिए डालर की जरूरत नहीं है। हालांकि 1991 तक सोवियत संघ के 15 देशों में बिखर जाने से पहले भारत के साथ इसका कारोबार रुपये-रूबल में ही होता था जिसे ‘एस्क्रू अकाउंट’ कहा जाता था। परन्तु इसके बाद यह व्यवस्था समाप्त हो गई। डालर को अन्तर्राष्ट्रीय कारोबार की मुद्रा बनाने में अमेरिका ने बहुत मेहनत की और इस देश ने पूरी दुनिया में अपनी आर्थिक ताकत की धाक जमाने में डालर का उपयोग भी जम कर किया। मगर 1974 के आसपास तक विश्व कारोबार के भुगतान की मुद्रा स्वर्ण या सोना ही हुआ करती थी। अमेरिका ने सोने को अपनी मुद्रा डालर से बदलने के लिए सिलसिलेवार काम किया और इसे विश्व की सबसे महंगी मुद्रा बना दिया। इसकी प्रक्रिया द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ही अमेरिकी राष्ट्रपति रूडवेल्ट ने शुरू कर दी थी। वह लगातार चार बार अमेरिकी राष्ट्रपति चुने गये थे और 1945 में उनकी मृत्यु पद पर रहते हुए ही हो गई थी। उन्होंने लन्दन के ‘स्वर्ण वायदा बाजार’ के भावों पर निगाह रखनी शुरू की और बाद में उन्हें डालर के मुकाबले प्रभावित भी करने के प्रयास किये। रूजवेल्ट के बारे में यह प्रसिद्ध था कि वह सुबह नाश्ते की मेज पर ​बैठते ही लन्दन के सर्राफा बाजार के भावों की समीक्षा शुरू कर देते थे। इसके अमेरिका के अन्य राष्ट्रपतियों ने भी डालर के मुकाबले सोने की कीमतों को नियन्त्रित रखने के प्रयास जारी रखे।
 दूसरी ओर डालर के भाव मजबूत करने में अमेरिकी अर्थ शास्त्री लगे रहे जिससे विदेशी बाजारों में डालर की स्वीकार्यता बढ़ती गई और 1974 तक आते-आते सोने के दामों में नरमी का दौर चला जिसकी वजह से डालर अन्तर्राष्ट्रीय  कारोबार में सोने का विकल्प बन गया। इसके बाद डालर ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा और अमेरिका की डालर अर्थव्यवस्था पूरी दुनिया पर छा गई। एक समय वह भी आ गया जब सोने के भाव डालर की कीमत से प्रभावित होने लगे। पहले यह प्रक्रिया उलटी हुआ करती थी। परन्तु यूक्रेन से युद्ध छिड़ने के बाद रूस ने यूरोपीय देशों से ही अपनी मुद्रा रूबल में कारोबार शुरू किया। इसने डालर को एक तरफ रखते हुए यह जोखिम लिया और इसमें उसे अब सफलता भी मिल रही है। भारत के सन्दर्भ में यह स्पष्ट होना चाहिए कि जब हम आजाद हुए थे तो हमारे एक रुपये की कीमत इंग्लैंड की मुद्रा पौंड के बराबर हुआ करती थी, डालर के बराबर नहीं और उस समय पौंड डालर से महंगा था। मगर अमेरिका ने सोने के भावों को पहले पौंड से तोड़ा व डालर से बांधी और पौंड को नीचे गिरा दिया तथा पौंड को उल्टे डालर से जोड़ दिया। हालांकि पचास के दशक के शुरू में ब्रिटेन ने डालर से अपनी मुद्रा की समरूपता (पैरिटी) तोड़ी भी मगर वह कामयाब नहीं हो सकी जिसकी वजह से पुनः पौंड डालर से बंध गया। जिससे रुपये की कीमत भी स्वतः डालर से बंध गई। यह जानना इसलिए जरूरी है जिससे हम सोने-डालर व पौंड का अन्तः सम्बन्ध समझ सकें। इसलिए यह बेवजह नहीं है कि भारत में सोने के घरेलू दाम डालर की हवाला दर से जुड़े होते हैं। मगर जहां तक रुपये में कारोबार का सवाल है तो भारत रूस समेत पड़ोसी श्रीलंका, मालदीव समेत अधिसंख्य ​दक्षिण एशियाई व अफ्रीकी देशों के साथ आयात-निर्यात का कारोबार द्विपक्षीय आपसी मुद्रा के जरिये भारत में दूसरे देशों के बैंकों के वास्त्रों अकाउंट खोल कर करना चाहता है। इससे दोनों देशों के बीच सीधे रुपये में ही कारोबार हो सकेगा। कई साल पहले भारत सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय  बाजार में ‘मसाला बांड’ जारी किये थे और ‘रुपी बांड’ भी जारी किये थे। मसाला बांड का भुगतान डालर या रुपये में से किसी में भी हो सकता है और निवेश भी इसी प्रकार हो सकता है। रुपी बांड में निवेश व भुगतान केवल रुपये में ही होगा। सोचने वाली बात यह है कि यदि रुपया कारोबार की स्कीम सफल रहती है तो डालर की कीमत का क्या होगा? जब निर्यात व आयात खरीद बेच केवल रुपये में ही कर सकेंगे और इसकी विनिमय सम्बद्ध देश की मुद्रा में वास्त्रों अकाउंट के जरिये होगा तो डालर की कीमत पर इसका असर पड़े नहीं रहेगा और इसकी मांग घटेगी तथा यह सस्ता भी हो जायेगा। 

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