उत्तर प्रदेश में किसानों की ऋणमाफी का क्या नया रिकार्ड बनाया गया है कि उनके 22 पैसे से लेकर 8 रुपए तक के ऋण माफ करने के प्रमाणपत्र दिये गये हैं। दो-दो उप मुख्यमन्त्रियों के साथ चल रही मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने गोरखपुर अस्पताल के बच्चा हत्याकांड के बाद अभी तक की सबसे नकारा सरकार होने का सबूत दे दिया है। ऐसी सरकार को ही लोकतन्त्र में नाकाम सरकार कहा जाता है। मुझे ऐसे कठोर शब्दों का प्रयोग करने के लिए क्षमा किया जाये परन्तु वास्तविकता यही है कि योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश की 22 करोड़ जनता की अपेक्षाओं पर कुठाराघात करते हुए सन्देश दे दिया है कि उनका शासन जनता के प्रति जवाबदेही के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता। यदि राज्य के लोगों द्वारा अपार जनमत से चुनी गई सरकार को इसकी जरा भी परवाह होती तो इसका स्वास्थ्य मन्त्री आज भी अपने पद पर बने नहीं रहते, मगर देखिये सीनाजोरी की हद कि किस तरह गोरखपुर अस्पताल में बच्चों के मरने के पिछले आंकड़े जुटाकर यह बताने की कोशिश की गई कि अस्पताल में आक्सीजन की सप्लाई की कमी तो एक ‘टोटका’ था वरना हर साल बच्चे तो इसी तरह मरते रहते हैं।
जिस राज्य का विकास पिछले 25 साल से रुका पड़ा हो उस राज्य का मुख्यमन्त्री अगर मूलभूत विकास की जरूरतों के अलावा अन्य मुद्दों को अपनी वरीयता पर लेने की कोशिश करने लगे तो इसका मतलब केवल यही निकाल सकता है कि वह परिस्थितियों से हार मान बैठा है और लोगों को ऊल-जुलूल मुद्दों में उलझाना चाहता है।उत्तर प्रदेश में यही हो रहा है। योगी आदित्यनाथ फरमा रहे हैं कि वह राज्य के स्कूलों की पाठ्य-पुस्तकों का पाठ्यक्रम बदलवाने की तरफ ध्यान दे रहे हैं। उनका एक उपमुख्यमन्त्री फरमा रहा है कि इतिहास का पाठ्यक्रम भी बदला जायेगा, मगर कोई इनसे पूछे कि इन नेताओं की क्या हैसियत है कि ये शिक्षा के पाठ्यक्रम को बदलवाने का दम भर रहे हैं। क्या उत्तर प्रदेश के लोगों ने राज्य की 403 सीटों में से 325 सीटें भाजपा को पाठ्यक्रम बदलवाने के ले दी थीं। जाहिर तौर पर इतना बड़ा बहुमत लोगों ने दैनन्दिन की उन मुसीबतों से छुटकारा पाने के ले दिया था जिन्हें पिछली सरकारों ने अपनी राजनीति पक्की करने के लिए पैदा किया था। इनमें से कानून-व्यवस्था प्रमुख मुद्दा था। योगी सरकार इसे दुरुस्त करने में असफल रही है।
राज्य की शिक्षा प्रणाली के कर्णधार स्कूल तिजारत का बहुत बड़ा अड्डा बन चुके हैं। इनमें सुधार करने की योगी सरकार की इच्छाशक्ति शून्य दिखाई पड़ती है। कचहरी से लेकर सरकारी दफ्तरों में रिश्वत और भ्रष्टाचार का बाजार पहले जितना ही गर्म है। राज्य के हर छोटे-बड़े कस्बे गन्दगी के ढेर बने हुए हैं। कहीं भी किसी प्रकार के परिवर्तन की हलचल नजर नहीं आती है और मुख्यमन्त्री कह रहा है कि वह पाठ्यक्रमों में परिवर्तन करेगा। जरा कोई यह तो बताये कि पाठ्यक्रम में परिवर्तन का सिरा विकास से कहां और किस तरह जुड़ा हुआ है। भारत के इतिहास को बदलने की जो लोग मुहिम चलाये हुए हैं उनकी समझ में यह बात क्यों नहीं आती कि वे चाहकर भी इस देश की सोच को संकीर्ण नहीं बना सकते क्योंकि इसके समाज में हिन्दू-मुस्लिम एकता ऊपर से नहीं थोपी गई है बल्कि इसकी बनावट का अंग है। क्या कभी इस पर विचार किया गया है कि अकबर के पुत्र शहंशाह जहांगीर की रगों में किसका खून बहता था। उसकी रगों में हिन्दू महारानी जोधाबाई का रक्त भी था। इस देश के इतिहास को हिन्दू-मुसलमान दोनों ने ही मिलकर रचा है।
दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। क्या मुगल साम्राज्य के बिना भारत के इतिहास की कल्पना की जा सकती है और क्या इस हकीकत को नकारा जा सकता है कि सम्राट अशोक के बाद भारत को एक सूत्र में जोड़कर एक राष्ट्र की परिकल्पना मुगल बादशाह अकबर ने ही की थी। वह तो इससे भी बहुत आगे चला गया था जिसकी वजह से उसने एक नया हिन्दोस्तानी धर्म ‘दीने-इलाही’ तक चलाया था मगर इसकी स्वीकार्यता न होने के बावजूद उसने धर्म के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया। हमें अपनी आने वाली पीढिय़ों के हाथों में एक मजबूत समाज की संरचना वाला देश देना है न कि भेद-विभेद से कटा-छंटा भारत। अत: जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में पहले स्वास्थ्य सेवाओं का मजबूत जाल बिछाया जाये और यदि योगी आदित्यनाथ वास्तव में साधू स्वभाव के हैं तो उन्हें अपने राज्य में ऐसी शिक्षा व्यवस्था शुरू करने की नींव डालनी चाहिए जिसमें अमीरों और गरीबों के सभी बच्चों को एक जैसे स्तर की एक समान शिक्षा प्राप्त हो और प्राथमिक स्तर पर ही अमीरों और गरीबों के बच्चों के बीच भेदभाव होना बन्द हो।
शिक्षा तो राज्यों का विषय है मगर ये तो उलटी गंगा बहाने के लिए तैयार बैठे हैं। पाठ्यक्रम में परिवर्तन करके शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन करना चाहते हैं। कृपया शिक्षा को तो राजनीति का शिकार मत बनाइये वरना आने वाली पीढिय़ां कभी माफ नहीं करेंगी। इस राज्य के लोग अभी तक उन स्व. रामप्रकाश गुप्ता को नहीं भूले हैं जिन्होंने 1967 में संविद सरकार का उपमुख्यमन्त्री व शिक्षामन्त्री रहते हुए अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता हाईस्कूल व इंटरमीडियेट परीक्षाओं में समाप्त कर दी थी। उस दौर के इन कक्षाओं के छात्र अभी भी रामप्रकाश जी को याद करके माथे पर हाथ मारते रहते हैं।