सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की सुनवाई मंगलवार के दौरान राम जन्मभूमि पर सियासी ड्रामा देखने को मिला। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की अगुवाई में तीन जजों की बेंच जब इस मामले में सुनवाई के लिए बैठी तो लग रहा था कि सुनवाई कानूनी नुक्तों पर ही होगी। लेकिन कांग्रेस के नेता और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल और उनके साथी वकील डॉ. राजीव धवन ने ज्यादातर दलीलें राजनीतिक ही दीं। कभी एनडीए के चुनावी घोषणा पत्र में राममंदिर का जिक्र तो कभी सुनवाई को आने वाले लोकसभा चुनाव तक यानी जुलाई 2019 तक टालने की दलीलें दे डालीं।
सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई शुरू हुई तो शिया वक्फ बोर्ड की ओर से वकील एमसी ढींगरा ने लगे हाथ अपना रुख साफ कर दिया। उन्होंने कहा कि शिया वक्फ बोर्ड ने अपनी तरफ से इस मसले को अदालत के जरिये या बाहर हल करने का फार्मूला निकाला है। उसका खाका ये है कि जन्मभूमि पर राम मंदिर बन जाए और लखनऊ या फैजाबाद में मस्जिद अमन की तामीर कर दी जाए। लेकिन कोर्ट ने ये कहकर दलील को तूल नहीं दिया कि ये बातें तो बाद में होंगी पहले सुनवाई की रूपरेखा तो तय हो जाए। इसके बाद मोर्चा संभाला मुख्य तीन पक्षकारों में से एक और इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने सुप्रीम कोर्ट आए यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के वकील कपिल सिब्बल ने। सिब्बल ने पहले तो अनुवाद किए दस्तावेज को यूपी सरकार की ओर से न दिए जाने की दलील दी। इसके बाद सीधे सीधे सियासी मुद्दे पर आ गए। उनका साफ साफ कहना था कि अदालत इस मामले की सुनवाई जुलाई 2019 तक के लिए टाल दे। यानी तब तक इस मामले में कोर्ट सुनवाई लटका कर रखे जब तक 2019 के लोकसभा चुनाव न हो जाएं।
कोर्ट ने कहा कि आखिर आम चुनाव से इस मुकदमे का क्या संबंध है। इस पर सिब्बल की दलील थी कि सुनवाई तो अदालत के इस कक्ष में हो रही है, लेकिन इसका असर देश भर में पड़ेगा। चीफ जस्टिस ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं होता है। ये भी एक मुकदमा है। तथ्य और सबूतों के आधार पर इसकी भी सुनवाई होनी है। लेकिन सिब्बल फिर बोले किसी को कुछ भी लगे, लेकिन मेरा मानना है कि असर होगा। क्योंकि मोदी सरकार के चुनावी घोषणा पत्र में भी राम मंदिर बनाने का जिक्र है। सरकार के राजनीतिक एजेंडे में राम मंदिर शामिल है। अगर इस मामले में जैसा भी फैसला आएगा ये सरकार उसका राजनीतिक इस्तेमाल करेगी। लिहाजा किसी भी तरह इसे टाला जाए। लेकिन कोर्ट ने सिब्बल की इस दलील को भी नजरअंदाज कर दिया। सिब्बल के साथी वकील डॉ. राजीव धवन ने तो यहां तक कह दिया कि 19 हजार पेज से ज्यादा के दस्तावेज हैं। तीन मुख्य पक्षकार हैं। 20 से ज्यादा इन्टरवीनर हैं। कोर्ट अब से लेकर हर हफ्ते सोमवार से शुक्रवार तक रोजाना आठ घंटे भी सुनवाई करे तो अगले साल अक्तूबर से पहले सुनवाई पूरी नहीं होगी। यानी उन्होंने कहा कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के कार्यकाल में इस मामले का फैसला नामुमकिन है।
अदालत ने उनके इस अंदाज को भी हवा में उड़ा दिया। आखिरी दलील दी गई कि एक कंस्टीट्यूशन बेंच जिसमें पांच या सात जज हों उसी बेंच को ये मामला सुनना । क्योंकि कुछ साल पहले एक कंस्टीट्यूशन बेंच ने एक मुकदमे में फैसला सुनाते हुए कहा था कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। तो अब तीन जजों की बेंच वैसी ही मस्जिद के मालिकाना हक का फैसला कैसे करेगी। कोर्ट ने इस दलील को भी ये कह कर तरजीह नहीं दी कि ये तो सिविल सूट का मामला है न कि कंस्टीट्यूशन से जुड़ा कोई मसला। अब बेचैन होने की बारी याचिकाकर्ताओं के वकीलों की थी।
कोर्ट ने जैसे ही कार्रवाई आगे बढ़ाते हुए फैक्ट शीट यानी तथ्यों का सिलसिला कोर्ट के सामने पेश करने को कहा तो सिब्बल और राजीव धवन भड़क गए। उनका कहना था कि हमारी कानूनी आपत्तियों और सुझावों के बावजूद अगर अदालत सुनवाई करेगी तो वो विरोध करेंगे। अदालत ने फिर भी उदासीन रवैया अपनाय़ा। इस पर बिफरे दोनों वकीलों ने अदालत के कमरे से बाहर जाने तक की बात कह डाली। इस पर कोर्ट ने दलीलों का आधार बनाए गए दस्तावेजों की सूची पर चर्चा की। कार्रवाई आगे बढ़ाते हुए अदालत ने कहा कि दस्तावेजों के आदान प्रदान की प्रक्रिया 15 जनवरी तक पूरी कर ली जाए। 8 फरवरी को यही बेंच इस मामले में सुनवाई करेगी। यानी एक कानूनी मसले के सियासी पहलू को उघाड़ते ढकते ये मसला एक कदम और आगे बढ़ गया।
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