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न्यायालय ने 11.8 लाख वनवासियों को बेदखल करने के 13 फरवरी के अपने आदेश पर लगाई रोक

अदालत ने कहा कि किसी भी परिस्थिति में ‘ताकतवर लोगों’ को वन भूमि या वनवासियों के परंपरागत अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करने दिया जायेगा। 

उच्चतम न्यायालय ने 21 राज्यों को 11.8 लाख वनवासियों और आदिवासियों को बेदखल करने संबंधी अपने 13 फरवरी के निर्देश पर बृहस्पतिवार को रोक लगा दी। जंगल की जमीन पर इन वनवासियों के दावे अधिकारियों ने अस्वीकार कर दिये थे। न्यायमूर्ति अरूण मिश्रा, न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति एम आर शाह की पीठ ने इन राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे वनवासियों के दावे अस्वीकार करने के लिये अपनायी गयी प्रक्रिया के विवरण के साथ हलफनामे दाखिल करें।

पीठ इस मामले में अब 10 जुलाई को आगे विचार करेगी। शीर्ष अदालत बुधवार को 13 फरवरी के अपने आदेश पर रोक लगाने के केन्द्र सरकार के अनुरोध पर विचार के लिये सहमत हो गयी थी। न्यायालय ने इस आदेश के तहत 21 राज्यों से कहा था कि करीब 11.8 लाख उन वनवासियों को बेदखल किया जाये जिनके दावे अस्वीकार कर दिये गये हैं। पीठ ने संक्षिप्त सुनवाई के बाद कहा, ‘‘हम अपने 13 फरवरी के आदेश पर रोक लगाते हैं और इसे विलंबित रखते हैं।’’ पीठ ने कहा कि वनवासियों को बेदखल करने के लिये उठाये गये तमाम कदमों के विवरण के साथ राज्यों के मुख्य सचिवों को हलफनामे दाखिल करने होंगे।

 शीर्ष अदालत ने हालांकि केन्द्र को राहत प्रदान कर दी परंतु वह इस बात से नाराज थी कि इतने लंबे समय तक वह ‘सोती’ क्यों रहीं और 13 फरवरी के निर्देश दिये जाने के बाद उसे अब न्यायालय आने की सुध आयी। पीठ ने कहा कि इस समय उठाये जा रहे अनेक बिन्दुओं को मामला लंबित होने के दौरान नहीं उठाया गया। न्यायालय ने केन्द्र से कहा कि 2016 में राज्य सरकारों को वनवासियों के दावों को अस्वीकार करने और इसके बाद की कार्रवाई का विवरण दाखिल करने का निर्देश दिया गया था। मामले की सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों ने विस्मय के साथ सवाल किया कि क्या ये सब आदिवासी हैं या सामान्य लोग जो वहां रह रहे थे।

 गैर सरकारी संगठन वाइल्डलाइफ फर्स्ट की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने कहा कि सही वनवासी प्रभावित नहीं होंगे और वे, जिन्हें प्राधिकारियों ने पट्टे दिये हैं, भी प्रभावित नहीं होंगे। केन्द्र ने 13 फरवरी के आदेश में सुधार का अनुरोध करते हुये न्यायालय से कहा कि अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून, 2016 लाभ देने संबंधी कानून है और बेहद गरीब और निरक्षर लोगों, जिन्हें अपने अधिकारों और कानूनी प्रक्रिया की जानकारी नहीं है, की मदद के लिये इसमें उदारता अपनाई जानी चाहिए।पीठ ने अपना आदेश विलंबित रखते हुये कहा कि इन दावेदारों के पास हो सकता है कि आवश्यक दस्तावेज ही नहीं हों।

साथ ही पीठ ने राज्य सरकार को दस्तावेज दाखिल करने के लिये कहा ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या उचित प्रक्रिया के पालन के बाद इन्हें अस्वीकार किया गया। शीर्ष अदालत ने निर्देश दिया कि प्राधिकारी इस बात की भी जांच करें कि राज्य स्तर की निगरानी समिति दावे अस्वीकार किये जाने की प्रक्रिया में शामिल थी। राज्य स्तर की समिति को यह सुनिश्चित करना था कि इस कानून के तहत औपचारिकताओं के पालन के अलावा किसी भी आदिवासी को बेदखल नहीं किया जाये। शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी भी परिस्थिति में ‘ताकतवर लोगों’ को वन भूमि या वनवासियों के परंपरागत अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करने दिया जायेगा।

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