उच्चतम न्यायालय ने केरल के सबरीमला मंदिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देने के निर्णय पर पुनर्विचार के लिये दायर याचिकाओं पर बुधवार को सुनवाई पूरी कर ली। न्यायालय इस पर अपना आदेश बाद में सुनायेगा। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने शीर्ष अदालत के 28 सितंबर, 2018 के निर्णय पर पुनर्विचार के लिये दायर याचिकाओं पर सभी पक्षों को सुनने के बाद कहा कि इस पर आदेश बाद में सुनाया जायेगा।
शीर्ष अदालत के इस निर्णय पर पुनर्विचार के लिये दायर याचिकाओं पर केरल सरकार, नायर सर्विस सोसायटी, त्रावणकोण देवस्वओम बोर्ड और अन्य पक्षकारों को सुना। इस मामले में कुल 64 याचिकायें न्यायालय के समक्ष थीं। पीठ ने अंत में कहा कि 28 सितंबर, 2018 के निर्णय पर पुनर्विचार करने या नहीं करने के बारे में वह अपना आदेश बाद में सुनायेगी।
देवस्वओम बोर्ड ने लिया यू टर्न, कहा-सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का करता है समर्थन
केरल के सबरीमला मंदिर का संचालन करने वाले त्रावणकोर देवस्वओम बोर्ड ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय में अपना रुख बदलते हुये कहा कि वह मंदिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देने संबंधी फैसले का समर्थन करता है। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष बोर्ड की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि यह उचित समय है कि किसी वर्ग विशेष के साथ उसकी शारीरिक अवस्था की वजह से पक्षपात नहीं किया जाये।
द्विवेदी ने कहा कि अनुच्छेद 25 (1) सभी व्यक्तियों को धर्म का पालन करने का समान अधिकार देता है। त्रावणकोर देवस्वओम बोर्ड में राज्य सरकार के प्रतिनिधि भी शामिल होते हैं। बोर्ड ने इससे पहले इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन की जनहित याचिका का जबर्दस्त विरोध करते हुये कहा था कि सबरीमला मंदिर में भगवान अयप्पा का विशेष धार्मिक स्वरूप है और संविधान के तहत इसे संरक्षण प्राप्त है।
द्विवेदी ने कहा कि शारीरिक अवस्था की वजह से किसी भी महिला को अलग नहीं किया जा सका। समानता हमारे संविधान का प्रमुख आधार है। उन्होंने कहा कि जनता को सम्मान के साथ शीर्ष अदालत का निर्णय स्वीकार करना चाहिए। शीर्ष अदालत 28 सितंबर, 2018 के संविधान पीठ के निर्णय पर पुनर्विचार के लिये दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। संविधान पीठ ने 4:1 से बहुमत के अपने में कहा था कि आयु वर्ग के आधार पर महिलाओं का प्रवेश वर्जित करना उनके साथ लैंगिक आधार पर भेदभाव करना है।
सबरीमला प्रकरण में न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार का केरल सरकार ने किया विरोध
सबरीमला मंदिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देने संबंधी फैसले पर पुनर्विचार के लिये दायर याचिकाओं का केरल सरकार ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय ने पुरजोर विरोध किया। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ 28 सितंबर, 2018 के शीर्ष अदालत के फैसले पर पुनर्विचार के लिये दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़़ और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा शामिल हैं।
केरल सरकार ने इन पुनर्विचार याचिकाओं का पुरजोर विरोध करते हुये कहा कि इनमें से किसी भी याचिका में ऐसा कोई ठोस आधार नहीं बताया गया है, जिसकी बिना पर 28 सितंबर, 2018 के फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता हो। नायर सर्विस सोसायटी और धर्म स्थल के तंत्री सहित कई संगठनों ने शीर्ष अदालत के फैसले पर पुनर्विचार का अनुरोध करते हुये न्यायालय में याचिकायें दायर की हैं। नायर सर्विस सोसायटी की ओर से पूर्व अटॉर्नी जनरल के परासरन ने बहुमत के फैसले की आलोचना की और कहा कि संविधान का अनुच्छेद 15 देश के सभी नागरिकों के लिये सारी सार्वजनिक और पंथनिरपेक्ष संस्थाओं को खोलता है परंतु इस अनुच्छेद में धार्मिक संस्थाओं को शामिल नहीं किया गया है।
संविधान पीठ के फैसले पर पुनर्विचार का अनुरोध करते हुये परासरन ने कहा कि समाज में व्याप्त अस्पृश्यता के उन्मूलन की बात करने वाले संविधान के अनुच्छेद का शीर्ष अदालत के निर्णय में गलत इस्तेमाल हुआ है क्योंकि कतिपय आयु वर्ग की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश से वंचित करना जाति पर आधारित नहीं है। पूर्व अटॉर्नी जनरल ने सबरीमला मंदिर में स्थापित मूर्ति के चरित्र का जिक्र करते हुये कहा कि न्यायालय को इस पहलू पर भी विचार करना चाहिए था। केरल सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता जयदीप गुपता ने कहा कि अनुच्छेद 25 (2), 26 और केरल कानून के नियम 3 (बी) के तीन पहलुओं पर बहुमत का निर्णय सुनाने वाले चार न्यायाधीशों में सहमति थी। उन्होंने कहा कि किसी भी पुनर्विचार याचिका में इन तीन बिन्दुओं से संबंधित कोई सवाल नहीं उठाया गया है। इसलिए पुनर्विचार याचिकाओं में उठाये गये दूसरे बिन्दुओं से इस मामले में कोई फर्क नहीं पड़ता है।
गुप्ता ने कहा कि फैसले पर पुनर्विचार का यह कोई आधार नहीं हो सकता कि कतिपय दलीलों पर विचार नहीं किया गया या ये तर्क नहीं दिये गये थे। उन्होंने कहा कि फैसले पर नये सिरे से विचार का अनुरोध करने वाली किसी भी याचिका में कोई नया कानूनी पहलू नहीं उठाया गया है। केरल सरकार की ओर से ही एक अन्य वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया ने कहा कि पुनर्विचार याचिका के माध्यम से इस मामले को फिर से खोलने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
त्रावणकोर देवस्वओम बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने फैसले पर पुनर्विचार का समर्थन किया और कहा कि मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित नहीं है। पुरुषों को भी अलग नहीं किया गया है। किसी भी वर्ग की महिला या पुरुष को उसकी जाति या धर्म के आधार पर अलग नहीं किया जाता है। एक वर्ग (महिलाओं) के भीतर ही एक वर्ग को अलग किया जाता है। अत: अस्पृश्यता उन्मूलन से संबंधित अनुच्छेद 17 इस मामले में लागू नहीं होगा।
एक अन्य पक्षकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नफड़े ने कहा कि आस्था के मामले में न्यायालय किसी समुदाय को एक विशेष तरीके से धर्म का पालन करने का निर्देश नहीं दे सकता है। नफड़े ने कहा, ‘‘यह धार्मिक समुदाय का आंतरिक मामला है जो एक विशेष तरीके से विशेष मूर्ति की पूजा करता है। इस बारे में कभी कोई विवाद नहीं रहा है कि सदियों से इस परंपरा का पालन किया जा रहा है। न्यायालय किसी समुदाय को ऐसा आदेश नहीं दे सकता कि वह अपनी धार्मिक परपंराओं का पालन विशेष तरीके से करे।’’ उन्होंने कहा कि जब तक कोई आपराधिक मामला नहीं बनता हो, धार्मिक परंपरा रोकी नहीं जा सकती।