होली का त्योहार आमतौर पर अपने देश के सभी जगह पर मनाया जाता है। इस साल की होली की तैयारी भी अपने अंतिम पड़ाव में अलग-अलग जगहों पर होली मानना शुरू कर दिया है। रंगो का ये त्योहार होता ही कुछ ऐसा है जो सभी जो झूमने पर मजबूर कर दे। देश के हर राज्य में होली मानने की अलग-अलग रीति-रिवाज है।
उत्तर प्रदेश की लट्ठमार होली, हरियाणा में धुलंडी होली, वृंदावन में फूलों की होली, महाराष्ट्र में रंगपंचमी, जयपुर में रॉयल होली आपने अभी तक इन सभी होली के नाम सुने होंगे लेकिन हम आपको बिहार की एक की फेमश होली जिसका नाम छाता होली है उसके बाते में बताने जा रहे है।
समस्तीपुर के धमौन इलाके की ये होली की कुछ अलग ही बात है। इसकी शुरुआत लगभग एक महीने पहने ही शुरू हो जाती है। गाँव के लोगों के मुताबिक इसकी शुरूआत 1930-35 में की गई थी। इसमें मुख्य बांस की तैयार छतरी के साथ फाग गाते निकलती है तो फिर पूरा इलाका रंगों से सराबोर हो जाता है।
सभी टोलों में बांस के बड़े बड़े छाते तैयार किए जाते हैं और इन्हें कागजों तथा अन्य सजावटी सामानों से आकर्षक ढंग से सजाया जाता है। अन्य राज्यो की तरह लोग इस गाओ में भी बड़ी दूर-दूर से आते है। होली से एक पखवाड़े पहले लोग इसकी तैयारी शुरू कर देते हैं।
प्रत्येक टोले में बाँस की विशाल छतरियाँ हैं जिन्हें कलात्मक रूप से डिज़ाइन किया जाता है। पूरे गांव में ऐसी 30 से 35 छतरियों को बनाया जाता है। होली का दिन छाते के साथ शुरू होता है क्योंकि सभी ग्रामीण अपने परिवार के मंदिर, स्वामी निरंजन के मैदान में इकट्ठा होते हैं और अबीर-गुलाल चढ़ाते हैं।
इसके बाद, लोग दिन भर ढोल और हारमोनियम पर बजाए जाने वाले फाग गीतों की धुनों को गले लगाते हैं। यह एप्लिकेशन चलता है। ग्रामीण अपनी टोला छतरियों के सहारे शोभा यात्रा में तब्दील होकर महादेव के दर्शन के लिए प्रस्थान करते हैं। आधी रात को परिवार के साथ खाते-पीते शोभा यात्रा महादेव स्थान पर पहुंचती है।
ये लोग जाते समय फाग गाते हैं, लेकिन वापस आने पर चैती। इसी समय फाल्गुन मास समाप्त होता है और चैत्र मास प्रारंभ होता है। उनका मानना है कि इससे केल देवता प्रसन्न होते हैं और गांवों में एक साल तक खुशहाली और गांव पवित्र बना रहता है