नई दिल्ली : भारतीय क्रिकेट टीम अपने श्रेष्ठ और सफलतम प्रदर्शन के दौर से गुजर रही है। यदि यूं कहा जाए कि विश्व कप में भाग लेने वाली सभी टीमों में से भारत और इंग्लैंड खिताब के प्रबल दावेदार बन कर उभरे हैं और दोनों ही देशों ने अब तक अपना श्रेष्ठ दिया है। कुछ क्रिकेट एक्सपर्ट्स तो यहां तक कहने लगे हैं कि भारतीय टीम का हर खिलाड़ी अपनी पोज़िशन पर फिट है और एक टीम के रूप में अलग पहचान रखते हैं।
ख़ासकर पाकिस्तान को हराने के बाद भारतीय खिलाड़ियों के भाव सातवें स्थान पर है। सट्टा बाजार भी उनमें चैम्पियन को खोज रहा है। भारतीय क्रिकेट प्रेमियों का एक वर्ग तो अपनी टीम को चैम्पियन मान चुका है। कुछ पूर्व खिलाड़ी भी यही सोच रखते हैं। किसी भी खिलाड़ी के चोटिल होने पर ज़्यादा हाय-तौबा नहीं मच रही क्योंकि उसका स्थान भरने के लिए विकल्प तैयार खड़ा है। अर्थात सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान से जिस हालत में जीते उसे देखते हुए तो यही कहा जाएगा कि जान बची तो लाखों पाए।
टीम की कमज़ोरियां भी उजागर हो गई हैं जिनसे चिंतित होना स्वाभविक है। खिलाड़ी आत्मविश्वास से भरे हैं तो टीम प्रबंधन और टीम के सपोर्टर मान चुके हैं कि विश्व कप एक बार फिर भारत आ रहा है। लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है जिसे अत्यधिक आत्मविश्वास से डर लग रहा है। कुछ जानकार और क्रिकेट प्रेमी 1983 में भारत के हाथों हुई वेस्टइंडीज की हार को याद कर सहम जाते हैं। तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि एकदिवसीय क्रिकेट में बेहद पिछड़ी कपिल देव की टीम क्रिकेट के बादशाह का मान-मर्दन कर देगी। सच्चाई यह है कि तब भारत को दावेदारों मे किसी ने भी शामिल नहीं किया था।
निर्णायक मुक़ाबले में वेस्ट इंडीज ने भारत को हल्के मे लिया और कीमत चुकाई। एक ऐसी टीम हार गई जिसे अजेय माना जा रहा था। बाद के सालों में इंग्लैंड, और दक्षिण अफ्रीका का भी कुछ ऐसा ही हाल हुआ। सच तो यह है कि क्रिकेट जैसे अनिश्चित खेल में कभी भी कुछ भी घटित हो सकता है। सीधा सा मतलब है कि कामयाबी के रथ पर पर सवार भारतीय टीम सिर्फ़ अपने खेल पर ध्यान दे और मीडिया की बातों पर गौर ना करे। सवाल दिन का होता है। भले ही कोई भी टीम बड़े-बड़े खिलाड़ियों से सजी हो लेकिन खेल बिगड़ते वक्त नहीं लगता।
(राजेंद्र सजवान)