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चीन के पूर्व प्रधानमंत्री ली पेंग का निधन

बीजिंग : थ्यानमेन चौक पर विद्यार्थियों के लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शन पर सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी की दमनकारी कार्रवाई के कट्टर समर्थक समझे

बीजिंग : थ्यानमेन चौक पर विद्यार्थियों के लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शन पर सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी की दमनकारी कार्रवाई के कट्टर समर्थक समझे जाने वाले चीन के पूर्व प्रधानमंत्री ली पेंग का यहां निधन हो गया। अधिकारियों ने मंगलवार को यहां यह जानकारी दी। सरकार के बयान के अनुसार ली का सोमवार रात को बीमारी के कारण निधन हो गया। वह 91 वर्ष के थे। ली चीन की नेशनल पीपुल्स कांग्रेस (चीनी संसद) की स्थायी समिति के अध्यक्ष के तौर पर 2001 में भारत आये थे। सरकारी संवाद समिति शिन्हुआ ने ली को ‘निष्ठावान कम्युनिस्ट योद्धा’ और ‘ कम्युनिस्ट पार्टी एवं राज्य का उत्कृष्ट नेता’ बताया । 
लेकिन वह 1989 में थ्यानमेन चौक पर प्रदर्शन को कुचलने के प्रति अपने सख्त रवैये के चलते व्यापक रूप से ‘बुचर ऑफ बीजिंग (यानी बीजिंग का कसाई) नाम से चर्चित रहे। सन् 1928 में एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी के परिवार में जन्मे ली तब अनाथ हो गये थे जब पिछली कुओमितांग सरकार ने उनके पिता को फांसी की सजा दे दी थी। उनका पालन-पोषण चीन के पूर्व प्रधानमंत्री झोउ एनलाई और उनकी पत्नी डेंग यिंगचाओ ने किया था। वह आगे चलकर चीन के सबसे महत्वपूर्ण और विवादास्पद नेताओं में से एक बने। 
वैसे ली ने इन अफवाहों का खंडन किया था कि वह दिवंगत प्रधानमंत्री झोउ के दत्तक पुत्र हैं लेकिन उन्होंने यह जरूर कहा कि वह उनके और डेंग के करीब हैं। वर्ष 2014 में प्रकाशित अपने संस्मरण में ली ने लिखा कि झोउ और डेंग के साथ उनका संबंध पुराने कॉमरेड और शहीद के वंशज के जैसा था। तत्कालीन सोवियत संघ में इंजीनियर के रूप में प्रशिक्षण पाने वाले ली ने चीन लौटने से पहले किसी राष्ट्रीय बिजली कंपनी में काम किया। माओत्से तुंग के काल में राजनीतिक उथल-पुथल और भयावह सांस्कृतिक क्रांति के दौरान वह भागने में सफल रहे। 
माओ की मृत्यु के उपरांत ली खासकर सुधारवादी नेता डेंग द्वारा माओ की पत्नी जियांग किंग की अगुवाई वाली ‘गैंग ऑफ फोर’ को किनारे लगाकर सत्ता अपने हाथ में लेने के बाद प्रभावशाली बने। उसके बाद वह 1987 से 1998 तक देश के चौथे प्रधानमंत्री रहे और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में कई अहम पदों पर रहे। ली ने 20 मई, 1989 को मार्शल लॉ की घोषणा कर दी। चीन ने विद्यार्थियों की अगुवाई वाले इस आंदोलन को शुरू में ‘क्रांति विरोधी बगावत’ कहा लेकिन बाद में उसने इसे ‘राजनीतिक उथल-पुथल करार दिया। हालांकि विद्यार्थी नेताओं ने इस सैन्य कार्रवाई को ‘नरसंहार’ बताया। उसके बाद पिछले तीन दशक में 1989 की घटनाओं पर हर प्रकार के जन विमर्श को चीन में दबा दिया गया। 
चार जून, 1989 को राजधानी में लोकतंत्र समर्थक व्यापक प्रदर्शन पर नृशंस कार्रवाई को लेकर ली दुनियाभर में कुख्यात हो गये थे। उन्हें जीवन के आखिरी क्षण तक लोग दमन के प्रतीक के रूप में नफरत की नजर से देखते रहे। 1989 में 3-4 जून की दरम्यानी रात को सेना ने प्रदर्शन को हिंसक होने से रोकने के लिए कार्रवाई की और सैकड़ों निहत्थे नागरिक मारे गये। कुछ अनुमानों के अनुसार 1000 से अधिक लोगों की जान गयी। वैसे सेना को भेजने का फैसला सामूहिक रूप से किया गया था लेकिन ली को इस खूनी कार्रवाई के लिए व्यापक रूप से जिम्मेदार ठहराया गया। हालांकि, ली ने प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी के फैसले को ‘जरूरी’ कदम बताते हुए बार-बार बचाव किया। उन्होंने 1994 में ऑस्ट्रिया की यात्रा के दौरान कहा था, ‘‘ बिना इन कदमों के चीन के सम्मुख पूर्वी सोवियत संघ या पूर्वी यूरोप से भी भयावह स्थिति खड़ी हो जाती ।’’ 

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